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________________ ४५ निर्गुणी को क्या उपमा दी जाय ? सकता क्योंकि इसी कस्तूरी के द्वारा 'हरि' अर्थात् कृष्ण का राजतिलक किया गया था । इसकी सुगंध भी अवर्णनीय है जो कि शब्दों के द्वारा नहीं बताई जा सकती । तभी तो कहा गया है— आमोदेन हि कस्तूर्याः, शपथेन विभाव्यते ।' आशय यही कि कस्तूरी की सुगंध का परिचय शपथ खाकर देने की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं ही अपना परिचय दे देती है ।" हरिण अपना दूसरा गुण बताता है— मेरे नयन इतने सुन्दर और आकर्षक होते हैं कि कवियों और विद्वानों को नारी के नेत्रों की उपमा देने के लिए मेरी आंखों का उल्लेख करने की आवश्यकता पड़ती है । क्योंकि सौन्दर्य के अलावा मेरे मन की सरलता, पवित्रता और भोलापन भी मेरी आंखों में झकलता है । लोग कहते हैं कि जो बात वाणी प्रकट नहीं कर पाती वह बात आंखें आसानी से कह देती हैं । आंखें आन्तरिक भाव को ग्रहण करने में इतनी पटु हैं कि लज्जाजनक बात देखते ही झुक जाती हैं, आनन्द का भान होते ही चमक उठती हैं, रोष का उदय होते ही जलने लगती हैं और करुणा का उद्रेक हुआ नहीं कि नम्र हो जाती हैं और बरस पड़ती हैं । तो, चूंकि नारी का हृदय भी सरल, कोमल एवं करुण होता है और इसीलिये उसके नेत्रों में सहज सौन्दर्य अपना स्थान बना लेता है । स्पष्ट है कि समान गुण होने के कारण नेत्रों में समानता होती है और मेरे भी नेत्र गुणवती नारी के नेत्रों के सदृश होने के कारण उन्हें काव्यरसिक और शृंगार प्रेमी व्यक्ति 'मृगाक्षी', 'मृगनयनी' एवं 'मृगलोचनी' कहा करते हैं ।" इस प्रकार दो गुण तो मैंने बता दिये । अब तीसरा गुण बताता हूं कि - मेरे सींग भी कम महत्त्व नहीं रखते । उनके द्वारा 'श्रृंगी' नामक वाद्य का निर्माण होता है, जिसकी मधुरध्वनि लोगों के मनुष्य के पास तो ऐसी कोई वस्तु है नहीं, फिर की जाती है । मन को मुग्ध उसकी तुलना कर देती है । मुझ से क्यों आगे हरिण कहता है— मैं मनुष्यों की बस्ती से दूर वन में रहता हूं । feat को भी कोई हानि नहीं पहुंचाता। फिर भी शिकारी वहाँ आ पहुंचते हैं और मुझे मारकर मेरा मांस खाने के लिये लालायित रहते हैं । एक श्लोक में कहा भी है मृग मीन सज्जनानाम्, तृण जल संतोष निहित वृत्तीनाम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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