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आनन्द-प्रवचन भाग-४
वस्तुतः कवि सृष्टि के सौन्दर्य का मर्मज्ञ होता है। वह ऐसा यन्त्र है जिसके द्वारा ही संसार का सौन्दर्य देखा जा सकता है।
पर ध्यान देने की बात है कि कवि केवल बाह्य जगत का हो सौन्दर्य नहीं देखता, वह अन्तर्जगत की उपासना भी करता है । और हम यह कह सकते हैं कि बाहरी सौन्दर्य का वर्णन करने वाला जहां कवि कहलाता है, वहां अन्तर्मन के सौन्दर्य का वर्णन करने वाला महाकवि होता है। ___ ऐसे ही महाकवि हमारे पूज्य पाद श्री तिलोक ऋषि जी महाराज हुए हैं, जिन्होंने केवल मानव के मानस का ही सौन्दर्य और महत्व नहीं देखा अपितु मूक पशु हरिण के मन का महत्त्व भी समझा तथा उसकी ओर से भर्तृहरि जी को उत्तर दिया है । उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा बताया है कि हरिण को निर्गुणी की उपमा तनिक भी पसंद नहीं है । वह कहता है
. कहत कुरंग वे, खान कस्तूरी की हूं मैं,
करत तिलक हरी, सुगंधित भारी है। लोचन की उपमा सो, लागत हमारी शुभ, बाजत है शृगी तब, नाद हो प्यारी है। मांस ही सो काम आवे, रहूँ मैं जंगल बीच, खाल के संन्यासी जोगी, बिछावे जहारी है।
और भी अनेक गुण मोय में नराधिपत,
निर्गुणी की उपमा न, लागत हमारी है। कवियों की लीला भी न्यारी ही है। जिस प्रकार सभी वकील चतुर एवं होशियार होते हैं और कानून के जानकार भी। किन्तु फिर भी वे कोर्ट में परस्पर विरोधी व्यक्तियों का पक्ष लेकर दोनों को हो सच्चा सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं।
उसी प्रकार कवि भी यहां एक दूसरे का विरोध कर रहे हैं । एक कहता है—निर्गुणी व्यक्ति हरिण के जैसा है, तो दूसरा कहता है नहीं, हरिण में अनेक गुण हैं उसे निर्गुण नहीं कहा जा सकता।
तो हम यहां पद्य के आधार पर हरिण की बात सुन रहे हैं जो कहता है
मुझे निर्गुणी मनुष्य के समान मत बनाओ ! क्योंकि मुझमें तो अनेक गुण हैं। उनमें से प्रथम यह है कि मैं कस्तूरी की खान हूं। मेरी नाभि से अमूल्य कस्तूरी प्राप्त की जाती है। क्या निर्गुणी व्यक्ति कभी कस्तूरी का निर्माण कर सकता है ? मेरे द्वारा प्रदत्त कस्तूरी की कीमत कोई आंक नहीं
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