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________________ ४२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ अपेक्षा असाधारण मस्तिष्क, विशिष्ट विवेक और चमत्कारिक बुद्धि है । उसका विशाल अन्तःकरण है और उसमें अपना भला-बुरा सोचने की शक्ति है । इतना ही नहीं, इस भूतल पर जन्म लेनेवाले अन्य समस्त प्राणियों की अपेक्षा उसे स्पष्ट वाणी प्राप्त हुई है, जिसके द्वारा वह अपनी बात औरों से भली-भाँति कह सकता है । सारांश यही कि संसार की अन्य असंख्य योनियों से बचकर मनुष्य योनि प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है और यह अनन्त पुण्यों के फल-स्वरूप प्राप्त होती है । और तो और देवता भी मनुष्य पर्याय पाने के लिये लालायित रहते हैं। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि 'देवता मनुष्य जन्म पाने के लिए तरसते हैं आपका आश्चर्य करना और विचार करना उचित है। क्योंकि हम रात-दिन पढ़ते और सुनते भी हैं कि पुण्य-संचय करने से स्वर्ग प्राप्त होता है। और जब मनुष्य स्वर्ग की प्राप्ति करने का प्रयत्न करता है तो फिर देवता क्यों मनुष्य जन्म पाने की इच्छा करते हैं ? हमारे आगम इसका कारण आध्यात्मिक दृष्टिकोण से बताते हैं । वीतराग प्रभु का कथन है कि मनुष्य और देवताओं की सृष्टि भिन्न है तथा सांसारिक सुखों के मुकाबले में तो देवताओं के पास असीम ऋद्धि होती है तथा वे मनुष्य की अपेक्षा अनेक गुना अधिक सुख भोगते हैं। किन्तु आध्यात्मिक विकास, साधना और उसकी सिद्धि का जहाँ सवाल आता है, वहाँ देवता मनुष्य से बहुत नगण्य साबित होते हैं। क्योंकि देवता अधिक से अधिक केवल चार गुणस्थानों तक पहुंच सकते हैं, किन्तु मनुष्य चौदहों गुणस्थानों को पार करके संसार-मुक्त हो जाता है। अर्थात् परमात्म पद की प्राप्ति कर सकता है। अब आप ही बताइए कि देवयोनि श्रेष्ठ हुई या मनुष्ययोनि ? निश्चय ही मनुष्य योनि श्रेष्ठ है। और इसीलिये देवता मनुष्य जीवन प्राप्त करना चाहते हैं। हमारे स्थानांग सूत्र में कहा भी है तओ ठाणाइ देवे पोहेज्जा माणुसं भवं, आरिए खेत्त -जम्म, सुकुल पच्चायाति ।। देवता भी तीन बातों की इच्छा करते हैं- मनुष्य जीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । स्पष्ट है कि मानव जीवन बड़ा महिमाम य और दुर्लभ है। इसकी प्राप्त भी अनन्त पुण्यों के फलस्वरूप होती है। किन्तु जो बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं वे इस जीवन का सम्पूर्ण लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं तथा अपनी संयम-साधना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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