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आनन्द-प्रवचन भाग-४ रीति प्रोति सबसों भली, वैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ॥ अर्थात्-सबसे प्रेम-भाव रखना ही उत्तम है, इससे मन शांत, निर्मल और निश्चिन्त रहता है । और इसके विपरीत अगर अपने हितैषी या मित्रों के साथ बैर बांध लिया जाय तो प्रथम तो अपना मन ही प्रसन्न और हलका नहीं रह सकता दूसरे एक बार क्रोध की अग्नि के जल जाने पर धीरे-धीरे सभी सद्गुण उसमें भस्म हो जाते हैं और अनेकानेक कर्मों का बंध होता है।
पद्य में आगे कहा गया है कि हम सब मानव जो इस जन्म में एक-दूसरे से मिले हैं, पुनः इस प्रकार कभी नहीं मिल सकेंगे। क्योंकि मनुष्य पर्याय बार-बार नहीं मिलती। जो जीव जैसे कर्म करेगा उसे उन्हीं के अनुसार भिन्नभिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ेगा।
इस संसार में जो भी संयोग हमें मिले हैं उनका वियोग होना ही है। वाल्मीकि रामायण का एक श्लोक हमें बताता है
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महार्णवे। समेत्य तु व्यपेयातां कालमासाद्य कञ्चन । एवं भार्याश्चपुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च ।
समेत्य व्यवधावन्ति, ध्रुवो ह्येषां विनाभवः ॥ अर्थात्-जिस प्रकार महा-सागर में बहते हुए दो काष्ठ के टुकड़े कभी एक-दूसरे से मिल जाते हैं और मिलकर कुछ काल के बाद एक-दूसरे से विलग हो जाते हैं उसी प्रकार स्त्री, पुत्र. मित्र, कुटुम्वी तथा धन भी मिलकर विछुड़ जाते हैं । इनका वियोग अवश्यंभावी है।
इसीलिये महापुरुष हमें बार-बार कहते हैं-किसी से बैर मत बांधो, क्योंकि जीवन का अल्प समय पलक झपकते ही व्यतीत हो जाएगा किन्तु बैर से बंधे हुए कर्म अनेक जन्मों तक दुःख देंगे । और इसके विपरीत अगर मानव-मानव से प्रेम करेगा तो उसका यह जन्म तो सुखमय बनेगा ही, अगला जन्म भी शुभ-कर्मों के फलस्वरूप सुखद हो सकेगा।
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