SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रीति की रीत... पिलाना चाहिए । आपके यहाँ से खाकर जाने वाला व्यक्ति कभी आपको भूल नहीं सकता। ___ एक बार एक बरात एक गाँव से दूसरे गाँव जा रही थी। मार्ग में उसे चोरों ने लूट लिया संयोगवश चोरों के सरदार ने एक व्यक्ति से बरात के मालिक का नाम पूछ लिया। जिससे पूछा गया था उस व्यक्ति ने डरते-डरते बता दिया कि अमुक सेठ के लड़के की बरात जा रही है। __नाम सुनते ही चोरों का मुखिया चौंक पड़ा और बोला-"ओह ! मैंने तो एक बार उनके यहाँ भोजन किया है, उनका नमक खाया है। फिर किस प्रकार उनके लड़के की बारात को लूट सकता हूँ ?" यह विचार आते ही उसने अपने साथियों को आदेश दिया कि-'लूट का सब माल वापिस कर दो।' इस प्रकार उस चोर ने लूटा हुआ माल वापिस कर दिया और अपनी ओर से भी दूल्हे को उपहार दिया। यह क्यों हुआ ? इसलिए कि चोर को सेठ ने कभी भोजन कराया था। तो बंधुओ ! आपस में प्रेम बढ़ाने के ये छः साधन आपके सामने रखे गए हैं । अगर प्रत्येक व्यक्ति इनका उपयोग करे तो परिवार में और समाज में कभी अशांति और आपसी तनाव की स्थिति उत्पन्न न हो । यद्यपि अभी बताए हए ये सभी साधन सुनने में सरल और सहज लगते हैं किन्तु इन पर अमल करना उतना सरल नहीं है । फिर भी जो व्यक्ति इन पर अमल करेंगे उनका जीवन निश्चय ही सुन्दर बनेगा तथा वह अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति के मन को मुग्ध कर लेगा। आप जानते ही होंगे कि मन का मिलना बड़ा कठिन है और उनका फटना कितना सरल है । मन मिलने में तो बहुत समय लग सकता है किन्तु उनके टूटने में क्षण भर भी नहीं लगता । एक दोहे में कहा गया है - "दूध फटा, घी कहां गया ? मन फटा गई प्रोति । मोती फटा कीमत गई, तीनों को एक ही रीति ॥ पद्य में बताया गया है- 'दूध के फटते ही उसमें से घी विलीन हो जाता है, मन के फटते ही प्रीति नष्ट हो जाती है और मोती के फटते ही उसकी कीमत समाप्त हो जाती है । इन तीनों की एक ही रीति है। इसीलिये बंधुओ अपने आपसी संबंधों को बिगड़ने मत दो अन्यथा प्रेम नष्ट हो जाएगा और एक बार जो प्रेम नष्ट हो गया तो फिर उसे पुनः जागत करना कठिन होगा । इस विषय में भी कवि रहीम ने कहा है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy