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आनन्द-प्रवचन भाग-४
लिए भी न पूछे । अभी मैंने सुदामा के विषय में आपको बताया था कि वे किस प्रकार अपनी तुच्छ भेंट लेकर कृष्ण के पास गये और कृष्ण ने किस प्रकार उस भेंट को अपार स्नेह के साथ स्वीकार किया।
उन्हीं सुदामा के द्वारिका जाने से पहले की बात है, उनकी पत्नी उन्हें कृष्ण के पास जाने का आग्रह कर रही थी तो अपनी घोर दरिद्रावस्था से. भी पूर्ण संतुष्ट यानी संतोषी ब्राह्मण सुदामा ने पत्नी को समझाते हुए कहा
ते तो कही नीकी सुनि बात हित ही की यही--
रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए। मित्र के मिले तें चित्त चाहिए परसपर,
मित्र के जो जेइए तो तो आपहु जेंवाइए । सुदामा ने अपनी पत्नी से क्या कहा ? यही कि-''अरी बावली ! तूने कृष्ण के यहाँ जाने के लिए बार-बार कहा सो तो ठीक है, किन्तु यह तो सोच कि मित्रता निभाने की रीति क्या है, जिससे प्रेम सदा बना रहे, वह यही है कि मित्र से मिलने पर उसके समान हमें भी स्नेह देना चाहिये और अगर उसके यहाँ हम खाएँ तो हमें भी खिलाना चाहिये ।
कितनी सुन्दर बात है ? यद्यपि सुदामा गरीब थे किन्तु इस बात को भलीभाँति महसूस करते थे कि समान व्यवहार करने से ही मित्रता निभ सकती है और परस्पर प्रेम बना रह सकता है। ___ बंधुओ, आप संत मुनिराजों के दर्शन करने के लिये अनेक शहरों में जाते हैं, चाहे वे मारवाड़ मेवाड़, राजस्थान, मालवा, पंजाब या महाराष्ट्र कहीं के भी हों, वहाँ का संघ और संघ के व्यक्ति आपका इतना सत्कार करते हैं, और प्रेम-पूर्वक भोजन कराते हैं कि हृदय गद्गद् हो जाता है। उसी प्रकार आप भी अपने यहां आने वाले दर्शनार्थियों की सेवा में तन-मन से जुट जाते हैं । पर अगर आप ऐसा न करें तो? क्या आपके शहर का, संघ का और व्यक्ति का महत्व कम नहीं होगा ? अवश्य ही होगा।
इसीलिए मेरा कहना है कि प्रेम बढ़ाने के लिये खाने के साथ ही खिलाना भी आवश्यक है। यद्यपि मैं जानता हूँ कि आप केवल उन्हें ही नहीं खिलाते, जिनके यहाँ खा चुके हैं अपितु जिन्हें कभी देखा नहीं और जिनसे कोई पूर्वपरिचय नहीं, ऐसे भी अपने समस्त अतिथियों का आप पूरा सत्कार करते हैं। पर मैं नीति की दृष्टि से बात कह रहा हूँ कि अगर और कुछ अधिक न कर सकें तो हमें आये हुए अतिथि को रूखा-सूखा खिलाकर ही ठंडा पानी अवश्य
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