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________________ प्रीत की रीत.... ३७ - उसी आश्रम के पास शबरी नामक एक भीलनी रहती थी। उसने भी राम के आने का समाचार सुना । सुनते ही वह भी राम के स्वागत की तैयारी करने लगी। पर वह गरीबनी क्या तैयारियां करती ? उसके पास महर्षियों के समान सुरुचिकर कंद, मूल, फल कुछ भी नहीं थे । केवल एक टोकरीभर बेर थे । किन्तु पूर्ण विश्वास और भक्तिपूर्वक उसने उन्हीं बेरों को चखना शुरू कर दिया । जो खट्टे होते उन्हें एक ओर रखती जाती, और मीठे लगने पर भगवान को खिलाने के लिए अपनी टोकरी में रख देती। उसका यह कार्य देखकर आश्रमवासी हंसने लगे और बोले- "इस भीलनी के जूठे बेर खाने के लिए तो भगवान जरूर आएँगे भला और कौन उनका ऐसा स्वागत कर सकता है ?" पर भीलनी भी थी कि उसने किसी भी व्यक्ति के उपहास पर ध्यान नहीं दिया और चख-चखकर मीठे बेर छाँटती रही । जब उन्हें छाँट चुकी तो अपनी साड़ी के आंचल से ही झोपड़ी के सामने की सारी जगह बुहार दी और वह भी भगवान की प्रतीक्षा करने लगी। ___समय होते ही राम आश्रम में प्रविष्ट हुए और ऋषियों ने भक्तिपूर्वक उन्हें अपने-अपने यहाँ पधारने का आग्रह किया। किन्तु सब ठगे से खड़े रहे, यह देखकर कि राम सीधे शबरी की झोंपड़ी की ओर जा रहे हैं । प्रेम के आंसू बहाती हुई शबरी दौड़ी आई और राम को हाथ पकड़ कर अपनी झोंपड़ी के बाहर ले आई। एक आसन पर उन्हें बिठा दिया और बार-बार उनके चरणों से अपना मस्तक छुआने लगी। उसके पश्चात् ही वह टोकरी उठा लाई और एक-एक करके अपने चखे हुए बेर राम को खिलाने लगी । वे जूठे बेर खाकर राम ने अत्यन्त तृप्ति का अनुभव किया और उसके पश्चात् ही अन्य आश्रम निवासियों का आतिथ्य ग्रहण किया। - कहने का अभिप्राय यही है कि महत्त्व खाने की वस्तु का नहीं है वरन् उसके पीछे रहे हुए स्नेह का है। अतः उसका अनादर कभी नहीं करना चाहिए। और अत्यन्त स्नेहपूर्वक जो भी रूखा-सूखा किसी के द्वारा उपस्थित किया जाय उसे खिलाने वाले के स्नेह के समान ही स्वयं भी स्नेह से ग्रहण करना चाहिए । ऐसा करने पर ही आपसी प्रेम की वृद्धि हो सकती है। (६) भोजयते - प्रेम की वृद्धि का छठा साधन है - खिलाना । स्नेह खाने से जिस प्रकार बढ़ता है उसी प्रकार खिलाने से भी बढ़ता है। यह नहीं कि किसी के यहाँ स्वयं तो अनेक बार खा आएँ अपनी श्रीमंताई का और उच्चता का एहसान करने के लिए और सामने वाले को कभी ठंडे पानी के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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