SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ सभी संग्रहों का अन्त क्षय है, बहुत ऊँचे चढ़ने का अन्त नीचे गिरना है। संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। बुद्धिमान और विशाल हृदय वाले व्यक्ति इन बातों को सदा स्मरण में रखते हुए धन, जन अथवा किसी भी अन्य संयोग का गर्व नहीं करते । न वे इन संयोगों के कारण अपने आपको उच्च समझते हैं और न इनके अभाव में अन्य व्यक्तियों को नीचा। श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों पर अन्तर का सम्पूर्ण स्नेह उड़ेलते हुए भी कैसा मधुर उपालम्भ दिया है-- दुर्योधन की छोड़ मिठाई, साग विदुर घर खायो... भक्तों ने मोहे नाना भांति नचाओ । कितनी प्रेम पूरित झिड़की है ? कहा है-''इन भक्तों के मारे तो मेरे नाक में दम हो गया है। कितना नचाते हैं ये मुझे । इन महात्मा विदुर के कारण मुझे राजा दुर्योधन के बढ़िया पकवान छोड़कर इनकी पत्नी के हाथ से रूखा साग खाना पड़ा। कहते हैं कि एक बार विदुर की पत्नी ने प्रेम-विह्वल हो जाने के कारण केले छीलते वक्त अन्दर का गूदा तो एक ओर फेंक दिया तथा छिलकों का ढेर कृष्ण के आगे लगा दिया। पर कृष्ण उन्हें ही खा गए । पर उसी समय संयोग वश विदुर आ गए और यह सब देखकर महान् आश्चर्य से पत्नी को झिड़कते हुए बोले "अरी भागवान् ! यह क्या कर रही है ?" "क्यों क्या हुआ ?" पत्नी उनकी बात पर ध्यान न देते हुए केले छीलती हुई बोली। "जरा देखतो सही, तू खिला क्या रही है इन त्रिलोकीनाथ को ?" तब चोंककर पत्नी ने देखा तो उसे मालूम पड़ा कि वह कृष्ण को छिलके देती जा रही है, और वे खाते जा रहे हैं। अपनी भूल' पर अत्यन्त शर्मिन्दा होती हुई वह भगवान के चरणों पर झुक गई। किन्तु कृष्ण क्या वे छिलके नाराजी से खा रहे थे ? नहीं, उन्हें तो अपार प्रेम से खिलाये हुए छिलके अमृत तुल्य महसूस हो रहे थे। राम के जीवन की भी एक ऐसी ही प्रसिद्ध घटना है। वन में घूमतेघामते एक बार वे किन्हीं ऋषियों के आश्रम की ओर बढ़े। उनके आगमन की सूचना पाकर सभी ऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए और स्वागत की संपूर्ण तैयारियाँ करके भगवान की प्रतीक्षा करने लगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy