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प्रीति की रीत....
किन्तु स्नेह और सम्मानपूर्वक जो किसी के द्वारा दिया जाता है, उसे लेने से प्रेम घटता नहीं वरन बढ़ता है, और उसे लेने से अगर इन्कार किया जाय तो न लेने वाला व्यक्ति अहंकारी साबित होता है।
आपको ज्ञात होगा कि सुदामा जब श्रीकृष्ण से मिलने द्वारिका गए तो उनकी पत्नी ने केवल कुछ मुट्ठी चावल श्री कृष्ण को भेंट में देने के लिए अपने पति सुदामा के दुपट्टे में बाँध दिये । किन्तु तीन खंड के राजा श्रीकृष्ण को मुट्ठी भर चावलों की भेंट देने की हिम्मत सुदामा की नहीं पड़ी। भले ही कृष्ण उनके बचपन के मित्र थे किन्तु उस समय वे महाराज थे और उन्हें चावलों की तुच्छ भेंट देने का साहस सुदामा को कैसे होता?
पर कृष्ण अन्तर्यामी थे और जान गए थे कि अत्यन्त दरिद्रावस्था होने पर भी ये चावल सुदामा की पत्नी ने अत्यन्त प्रेम से भेजे हैं और मेरे मित्र ने लाए हैं । अतः उस भेंट की वस्तु को सप्रेम ग्रहण करने के लिए वे अपने बालमित्र से बोले
कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत ?
चांपि पोटरी कांख में, रहे कहौ केहि हेत? आगे चना गुरु मातु दए ते लए तुम चाबि हमें नहिं दीने । स्याम कहो मुसकाय सुदामा सों चोरी की बानि में हो ज प्रवीने ॥ पोटरी कांख में चापि रहे तुम खोलत नाहि सुधारस भीने । पाछिली बानि अजौं न तजी तुम तैसेई भाभी के तन्दुल कोने ॥ .
प्रेम की तुच्छ भेंट ग्रहण करने के लिए ही कृष्ण बड़ा मधुर उपालम्भ देते हुए सुदामा से कहते हैं - "मित्र ! मेरी भाभी ने मेरे लिए कुछ भेजा होगा, उसे क्यों नहीं देते हो ? तुम्हारी बगल में यह पोटली दिखाई तो दे रही है पर उसे निकालते क्यों नहीं ? ___ आगे और वे मुस्कराते हुए कहते हैं - "देखो मित्र ! बचपन में जब हम साथ-साथ पढ़ते थे, एक बार हमारी गुरु-माता ने चने दिये थे । किन्तु वे भी तुम ही खा गए थे मुझे नहीं दिये थे तुमने । लगता है कि आज भी तुमने अपनी वह पुरानी आदत छोड़ी नहीं है और उन चनों के समान ही भाभी द्वारा भेजे हुए चावलों की दशा की है । अन्यथा बताओ यह पोटली तुम खोलते क्यों नहीं हो ?"
बंधुओ ! इसे लेना कहते हैं । गरीब सुदामा अपनी छोटी सी भेंट देने में संकोच का अनुभव न करें तथा मिन्दा न हों, इसलिये कृष्ण उन्हें मीठे
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