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________________ २८ आनन्द-प्रवचन भाग-४. व्यक्ति उनसे पूछ बैठा - "क्या ये तुमसे भी बड़े हैं ?" उत्तर मिला--- "हाँ ये. हम सबसे बड़े हैं।" यह सुनते ही व्यक्ति ने भैरवनाथ का साथ छोड़ दिया और मन्दिर में आकर बैठ गया । पर वहाँ सेवा किसकी करता, अत: चुपचाप बैठा रहा । कुछ समय पश्चात् संयोगवश एक व्यक्ति वहाँ आया और पूछने लगा-- __ "तुम यहाँ क्यों बैठे हो ?' "मैं इनकी सेवा करना चाहता हूँ इसलिए बैठा हूँ।" व्यक्ति ने मूर्ति की ओर इंगित करते हुए उत्तर दिया। आगंतुक बुद्धिमान था । वह कुछ देर सोचता रहा और बोला - "कुछ समय बाद भगवान के इस मन्दिर के पास ही एक बड़ा मेला लगेगा । हजारों लोग यहाँ आएंगे, तुम अगर मनुष्यों की सेवा करोगे तो तुम्हें भगवान के दर्शन हो जाएंगे।" श्रद्धालु व्यक्ति वहीं एक कुटिया बना कर रहने लगा और मन्दिर में आनेजाने वालों की सेवा में जुट गया । वह लोगों को नदी के इस पार से उस पार भी पहुँचा देता था । कुछ समय बाद वहां मेला भर गया और उस व्यक्ति का काम भी बढ़ गया । दिन-रात वह लोगों की सेवा करता था। एक दिन वह बहुत रात बीते,थककर चूर हुआ लेटा ही था कि किसी ने कुटिया का द्वार बजाया । वह तुरन्त उठा और देखा तो एक बालक वहाँ खड़ा था । बालक ने कहा-"क्या तुम अभी मुझे नदी के उस पार पहुंचा सकते हो?" "हाँ, हाँ क्यों नहीं ?" कहता हुआ व्यक्ति फुर्ती से उस बालक को लेकर नदी के उस पार पहुँचा तो उसे लगा कि उस बालक का रूप मंदिर में स्थापित मूर्ति के समान हो गया है । आश्चर्य से उसकी आँखें फटी सी रह गई। यह देखकर मुस्कराते हुए बाल-रूप भगवान ने कहा "भाई ! तू जिस मंदिरवाले की सेवा करना चाहता है, वह मैं ही हूँ। पर अगर तू मेरी सेवा करने की इच्छा रखता है तो दीन-दुखी, अनाथ, असहाय एवं जरूरतमंदों की सेवा कर, क्योंकि उनकी सेवा करना ही मेरी सेवा करना है । मानव-सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।" बंधुओ ! हमें भी बड़ी-बड़ी धर्म-क्रियाएँ करने से पहले धर्म के मूल सेवाकार्य को अपनाना चाहिए। क्योंकि इस मूल के मजबूत होने पर ही तप-रूपी प्राचीरें और क्रिया-रूपी छत सुरक्षित रह सकेंगी। और धर्म के ऐसे सुदृढ़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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