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आनन्द-प्रवचन भाग-४
तो वह अपने स्नेह और मधुर व्यवहार के द्वारा ही दुखी, चिन्तित और शोकग्रस्त प्राणियों के दुखों पर सान्त्वना का मलहम रखकर उन्हें जीने की शक्ति प्रदान करे । सारांश कहने का यह है कि केवल धन से ही नहीं वरन् तन और मन से मानव-सेवा करना भी कम महत्व नहीं रखता । बल्कि धन की अपेक्षा मन से सेवा करना अधिक उत्तम है। धन तो हाथ का मैल कहलाता है, उसे कोई भी फेंक कर दे सकता है, किन्तु आंतरिक प्रेम से किसी की सेवा करना बड़ा कठिन और दुर्लभ होता है । संत तुलसीदास जी का कथन भी है ..
'सेवा धरम कठिन जग जाना।' अर्थात् सेवा करना सबसे बडा धर्म है पर कठिन भी है । आज हम सामायिक, प्रतिक्रमण, व्रत, उपवास, देव-दर्शन, पूजा आदि अनेक धर्म-क्रियाएँ करते हैं किन्तु इन सबसे बड़ा धर्म जो प्राणी की सेवा करना है उसकी ओर ध्यान नहीं देते । परिणाम यह होता है कि सेवा धर्म के अभाव में अन्य समस्त धर्म-क्रियाएं फीकी पड़ जाती हैं । सच्चे धर्म का प्रारम्भ ही मानव-सेवा से हो सकता है, इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिये।
बड़ों की सेवा
एक ग्रामीण व्यक्ति बड़ा श्रद्धालु था और धर्म करके अपना जीवन सफल बनाने की इच्छा रखता था। किन्तु उसे यह नहीं सूझता था कि धर्म किस प्रकार करें, क्योंकि वह अपढ़ और धर्म कैसे किया जाता है इस बात से अनभिज्ञ था। किन्तु एक बार संयोगवश उसके गाँव में संत आए और वह श्रद्धालु व्यक्ति उनका धर्मोपदेश सुनने के लिये गया ।
संत उस समय कह रहे थे—'जो बड़ों की सेवा करता है वह जन्म-मरण के चक्कर से सदा के लिये छूट जाता है और उसका मानव-जीवन सार्थक होता है । क्योंकि सेवा करना सबसे महान् धर्म है।"
संत का यह उपदेश ग्रामीण व्यक्ति को बहुत पसन्द आया। वह सोचने लगा--"धर्म का यह काम तो मैं बखूबी कर लूंगा।" वह उसी वक्त गाँव के मुखिया के पास गया और बोला “पटेल जी, मैं आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ।" पटेल यह बात सुनकर चकित हुए और उन्होंने इन्कार भी किया किन्तु वह व्यक्ति माना नहीं और उनकी सेवा में रह गया।"
पर एक दिन उस गाँव मे थानेदार आ गया । अतः पटेल ने कहा- "भाई ! आप खाना जल्दी तैयार कर देना । थानेदार साहब की हाजिरी में जाना है।"
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