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मोक्ष का द्वार कैसे खुलेगा ?
आगे कहा गया है:
वीणा यह तान सुनाती है, संगठन का पाठ पढ़ाती है । मुरझी हुई कलियाँ खिलने दो, संगठन की वीणा बजने दो । प्रस्तुत पद्य की लाइनों में मुख्य बात यह कही गई है कि - " हे भाई ! वीणा के तारों से संगठन और स्नेह की शिक्षा लेकर तुम भी उन कलियों को, जो शीघ्र ही मुरझाने वाली हैं पुनः खिलाओ और उनमें नव-जीवन का संचार करो । "
बन्धुओ, मुरझाने वाली कलियों के पुनः खिलाने की बात शायद आपके गले से नहीं उतरी होगी । आप सोचते होंगे, यह माली का कार्य है, हमें इतना समय कहाँ कि इन व्यर्थ की बातों में उन्हें वर्बाद करें । पर यहाँ कलियों से आशय बगीचे में पैदा होने वाली फूल की कलियों से नहीं है । अपितु हमारे समाज में उत्पन्न होने वाली कलियों से है ।
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आपने कभी तो ध्यान दिया होगा कि हमारे समाज में कितनी विषमता है ? इसमें आप जैसे लोग कम ही हैं जो धन में खेलते हैं तथा किसी वस्तु का अभाव क्या और कैसा होता है इसका अन्दाज भी नहीं लगा सकते । किन्तु अगर ध्यान पूर्वक देखें तो आप पाएँगे कि इसी समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हें भरपेट रोटी भी कभी नहीं मिलती, अनेकों आश्रयहीन विधवाएँ हैं जो पराया काम करती हैं ताकि उन्हें पेट में डालने को दो ग्रास रोटी के और लज्जा ढकने को थोड़ा सा वस्त्र उपलब्ध हो सके । इसी समाज में अनेकों बालक अनाथ और असहाय हैं जो अपने पढ़ने की उम्र होने पर भी पढ़ नहीं सकते क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है । और पैसा तो क्या पेट भरने को अन्न भी नहीं है, अत: वे जैन बालक होटलों में काम करते हैं, पैसे वालों के यहाँ छोटे-मोटे कामों के लिये नौकर हो जाते हैं या मजदूरी करने लगते हैं ।
क्या वे सब समाज रूपी बगीचे के मुरझाये हुए फूल या असमय में ही मुरझा जानेवाली कलियाँ नहीं हैं ? अवश्य हैं, और इन्हें पुनः खिलाने का कर्त्तव्य आप लोगों का है । किन्तु समाज इतना वृहत् है और अभावग्रस्त प्राणी उसमें इतने अधिक हैं कि चंद व्यक्तियों के किये यह कार्य नहीं हो सकता । जब आप लोग संगठित होकर समाज के उन श्री -हीनों की स्थिति सुधारने का बीड़ा उठाएँगे, तभी यह संभव हो सकेगा । किसी की सहायता केवल पैसे से ही नहीं की जाती । जिसके पास पैसा है, वह पैसा खर्च करे, जिसके पास पैसा नहीं है वह अपने शरीर से सेवा - कार्य करे और जिसके पास ये दोनों नहीं हैं
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