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________________ १८ . आनन्द-प्रवचन भाग-४ श्लोक में आगे कहा गया है 'सर्वेपंडितवादिनः ।' यानी सभी अपने आपको पंडित और विद्वान् मानना चाहते हैं। ऐसा होने पर भी बड़ा गड़बड़झाला समाज में हो जाएगा । अगर प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको पूर्ण विद्वान् समझ ले तथा अन्य किसी विद्वान के गुणों, विचारों और विद्वत्ता से लाभ न उठाए तो क्या वह स्वयं पूर्ण गुणी बन सकेगा ? ज्ञान की तो इति कभी होती नहीं चाहे वह जीवन भर उसका अर्जन करे । - सुप्रसिद्ध दार्शनिक ‘एमर्सन' का कथन है - Every man I meet is my superior in some way. In that I learn of him. प्रत्येक मनुष्य जिससे मैं मिलता हूँ किसी न किसी रीति से मुझसे श्रेष्ठ । होता है । इसलिये मैं उससे कुछ शिक्षा लेता हूं। . कितनी यथार्थ बात है। ऐसा विचार रखनेवाला निरभिमानी व्यक्ति ही सच्चा पंडित या ज्ञानी बन सकता है। और इसके विपरीत अपने आपको पूर्ण ज्ञानी समझने वाला अहंकारी पुरुष न तो सच्चा ज्ञानी बन सकता है और न ही अपना प्रभाव औरों पर डाल सकता है। उसका जीवन केवल औरों से तर्क-वितर्क करने में तथा अपने ज्ञान का निरर्थक डंका पीटने में ही चला जाता है। तीसरी बात है—'सर्वे महत्वमिच्छन्ति' सभी व्यक्ति अपने आपको बड़ा और महत्वपूर्ण मानना चाहते हैं। पर स्वयं के चाहने मात्र से ही क्या यह संभव हो सकेगा ? व्यक्ति वही महान् होता है जिसकी महानता अथवा गुणों की अन्य व्यक्ति सराहना करें। अपनी जबान से अपनी बड़ाई करने वाला व्यक्ति तो स्वयं ही अपने आपको ओछा साबित कर लेता है। आचार्य चाणक्य ने भी कहा है परस्तुतगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत् । इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।। जिस गुण का दूसरे व्यक्ति वर्णन करते हैं उससे निर्गुण भी गुणवान होता है । इन्द्र भी अपने गुणों की प्रशंसा करने से लघुता को प्राप्त होता है। आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि ऐसा क्यों ? पर यह है सही । क्योंकि अपनी प्रशंसा स्वयं न करने वाले व्यक्ति में अधिक नहीं तो नम्रता का गुण तो होगा ही जो सब गुणों में श्रेष्ठ गुण कहलाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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