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मोक्ष का द्वार कैसे खुलेगा ?
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सोलह सौ सामन्त सहस इक पन्द्रह राजा, सर्व धरत हैं शंक बजत इन्द्रपुर बाजा। टाँच सीस तस कागले, एक दिवस ऐसो भयो।
नर नरिन्द्र मत गर्व कर, कह रावण किस दिस गयो । कहा जाता है-रावण के पास अस्सी करोड़ हाथी, दस अरब घोड़े, पचास करोड़ योद्धा, अठारह नील पैदल सेना, सोलह सौ सामन्त, एक हजार पन्द्रह अधीनस्थ राजा थे जो कि सदा उसकी सेवा में तत्पर रहते थे। स्वर्ग और मृत्युलोक के सभी प्राणी उससे डरते थे। किन्तु एक दिन ऐसा आया कि उसकी लाश भी ठिकाने नहीं लग पाई तथा चील-कौवों ने उसके सदा ऊँचे रहने वाले मस्तक को जी भरकर क्षत-विक्षत किया । इसलिये कवि का कहना है-कोई भी व्यक्ति चाहे वह नर हो या नरेन्द्र, किसी भी प्रकार का गर्व न करे । क्योंकि गर्व के कारण महाबली और महा ऐश्वर्यशाली रावण भी जब कुल सहित नष्ट होकर न जाने किधर प्रयाण कर गया तो फिर साधारण मनुष्य की तो बिसात ही क्या है ? ___ तो बंधुओ ! मैं आपसे यह कह रहा था कि अभिमान सद्गुणों का शत्रु है अतः उसे हृदय से निकाले बिना स्नेह, प्रेम, सेवा, सहानुभूति करुणा तथा सहिष्णुता आदि सद्गुणों को नहीं अपनाया जा सकता। अभिमान के कारण व्यक्ति औरों से सहानुभूति नहीं रख पाता तथा सबसे मिल जुलकर नही चल सकता। संस्कृत में एक श्लोक है
सर्वेपि यत्र नेतारः सर्वे पंडितवादिनः ।
सर्वे महत्वमिच्छन्ति, तद् वंदमवसीदति ।। पद्य का पहला भाग है—'सर्वेपि यत्र नेतारः ।' जहाँ सभी अपने आपको नेता मानते हैं, वहाँ समाज का कार्य कैसे चल सकता है ? क्योंकि प्रत्येक नेता अपनी अलग विचारधारा रखता है तथा उसी के अनुसार अलग मार्ग ग्रहण करके औरों को भी उस पर चलाना चाहता है। क्योंकि अगर अन्य बहुत से व्यक्ति उसका अनुसरण न करें तो वह नेता कैसे कहलाएगा? कोई साधारण व्यक्ति तो अपने विचार औरों से भिन्न रख सकता है, क्योंकि उसका औरों से संपर्क न रहे तो चलता है। किन्तु जिस प्रकार सेना के बिना सेनापति नहीं बना जा सकता । उसी प्रकार अपने अनुयायियों के बिना नेता भी नहीं बना जा सकता । आखिर किनका नेता कहलाएगा वह ? बड़ी हास्यास्पद बात है यह । पर यथार्थ भी है।
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