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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ अब प्रश्न यह है कि सद्गुणों का संचय हो कैसे ? सद्गुण ऐसी वस्तु नहीं है जो धन देकर खरीद ली जाय अथवा शारीरिक बल के द्वारा किसी से छीन ली जाय । सद्गुण आंतरिक निधि हैं और आंतरिक उच्चता, त्याग एवं संयम के द्वारा ही उन्हें अपनाया जा सकता है। सद्गुणों की प्राप्ति में बाधाएँ कौन सी हैं ? आप सभी जानते हैं कि कोई भी मूल्यवान वस्तु व्यक्ति को सरलता से प्राप्त नहीं होती उसके लिये बहुत परिश्रम और त्याग करना पड़ता है तथा कई बाधाओं को हटाना पड़ता है। फिर सद्गुण तो अमूल्य हैं । अतः उनकी प्राप्ति में बाधाएं भी जबर्दस्त हो, इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। सदगुण आंतरिक निधि हैं, अतः उनके मार्ग में आने वाली बाधाएँ भी आंतरिक ही हैं । सरल शब्दों में, सद्गुण आत्मा की विशेषताएं हैं और उनके लिये बाधक आत्मा के विकार या दोष हैं। वे हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों कषाय आत्मिक गुणों की प्राप्ति में बाधक बनते हैं। इनमें सबसे मुख्य मान या अभिमान है । यह प्रथम तो सद्गुणों को आत्मा में प्रवेश ही नहीं करने देता और किसी तरह अगर वे प्रवेश कर जायें तो उन्हें पुनः निकाले बिना नहीं छोड़ता। रावण अनेक गुणों से युक्त था। महापंडित, तपस्वी और महान सिद्धियों का स्वामी भी था । जिनके बल पर वह सूर्य, चन्द्र तथा पवन को भी अपनी इच्छानुसार चलाया करता था ऐसा कहा जाता है। पूर्वकृत पुण्यों के उदय से उसे उच्च जाति, उच्च कुल, अतुल ऐश्वर्य और अपार शक्ति भी प्राप्त हुई थी। किन्तु साथ ही अहंकार रूपी विषधर नाग भी उसके हृदय में कुडली मारे बैठा हुआ था। ___हमारे शास्त्रों में अहंकार अथवा मद के आठ प्रकार बताए गये हैं । वे हैं—जाति मद, लाभ मद, कुल मद, ऐश्वर्य मद, बल मद, रूप मद, तप मद एवं श्रु त मद। शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि अगर इन आठों में से एक भी मद होता है तो वह आत्मिक-गुणों का नाश कर देता है । किन्तु रावण के हृदय में तो इन आठों ने कब्जा कर रखा था और इन्हीं के परिणाम स्वरूप उसकी क्या दशा हुई । इससे शायद ही कोई व्यक्ति अपरिचित हो। एक कवि ने उसके संबंध में कहा है असी कोड़ गजबंध, अर्व दस तुरी तुखारा, संत्री कोड़ पचास, पायदल नील अठारा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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