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________________ कर्म लुटेरे ! ३०५ - वह धनी व्यक्ति महात्मा जी की बात सुनकर बड़ा शर्मिन्दा हुआ और उनके चरणों पर गिर पड़ा । बोला-"गुरुदेव ! आपकी बात सत्य है । आपके धन की बराबरी मेरा यह सांसारिक धन नहीं कर सकता कृपया मुझे अपना शिष्य बना लजिये और आपके धन जैसा धन कमाने का मार्ग बताइये।" ____ तो बंधुओ, कवि ने इसलिए कहा है कि ज्वार का प्रकोप होने पर जिस प्रकार भोजन में रुचि नहीं रहतीं इसीप्रकार मिथ्यात्व का रोग रहने पर भी प्राणी धर्माराधन में रुचि नहीं लेता। वह भौतिक धन के पीछे दौड़ता है और आत्मिक धन को भूलकर मोक्ष-मार्ग से परे चला जाता है। मराठी भाषा में एक कवि ने कहा है"हरि नामाची गोड़ शर्करा, घेऊन नि अनुभव, __सर्व जनानां मुठ-मुठ वाटवि ।" अर्थात् --भगवान् की भक्ति और उनके नाम का स्मरण मीठी शक्कर के समान है । इसलिए उसका अनुभव स्वयं पहले करो और मुट्ठी भर-भरकर दूसरों को भी बाँटो । पर ऐसा कौन कर सकता है ? बताया है संत बड़े परमार्थी, मोटो जिनको मन । भर-भर मूठी देत हैं, धर्म रूप यो धन ॥ स्पष्ट है कि संत जो, निस्वार्थी, निस्पृही, निरहंकारी एवं निर्लोभी होते हैं वे ही इस प्रकार परोपकार और पर-सेवा में संलग्न रह सकते हैं । उन्हें न धन कमाने की चिन्ता रहती है, न परिवार के पालन-पोषण की फिक्र और न ही इन्द्रियों के सुखों को प्राप्त करने की लालसा होती है। सिख-धर्म-गुरु नानक ने भी सच्चे संतों के लक्षण बताए हैंसुख - दुख जिह परसे नहीं, लोभ मोह अभिमान । कहे नानक सुनरे मना! सो मूरत भगवान् । इस्तुत निद्या नाहिं जिह, कंचन लोह समान । कहे नानक सुन रे मना ! मुक्ति ताहि ते जान ॥ हरष शोक जाके नहीं, बैरी-मीत समान । कहे नानक सुनरे मना ! ज्ञानी ताहि बखान ।। भय काह को देत ना, ना भय मानत आन । कहे नानक सुन रे मना ! मुक्ति ताहिते मान ।। संत की कितनी सुन्दर, सत्य और स्वाभाविक परिभाषा की है किजिन महापुरुषों के मन को सुख, दुख लोभ, मोह और अभिमान स्पर्श भी नहीं करता अर्थात् जिनके हृदय में ऐसी भावनाओं का लेश भी नहीं होता २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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