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आनन्द-प्रवचन भाग-४
और जो न किसी स्वार्थ के कारण अन्य व्यक्तियों की प्रशंसा करते हैं और न ही किसी प्रकार की दुर्भावना के परिणाम स्वरूप किसी की निन्दा करते हैं वे संत भगवान् के प्रतिरूप होते हैं तथा स्वयं संसार-मुक्त होते हुए औरों को भी उसी मार्ग पर लेजा सकते हैं। ___ आगे भी कहा है-जो महा-मानव सुखद संयोगों के उपस्थित होने पर हर्ष से फूल नहीं जाते और दुखों या संकटों की घटाएँ जीवन पर छा जाने से घबराते या शोक-ग्रस्त नहीं होते वे ही संत कहलाते हैं। ऐसे संत अपना घोर अहित करने वालों को भी अपना दुश्मन नहीं समझते और अपनी सेवा, प्रशंसा अथवा स्तुति करनेवाले को मित्र नहीं मानते । उन्हें शत्रु और मित्र दोनों समान लगते हैं। न वे किसी को भयभीत करते हैं और न किसी से भी भयभीत होते हैं । ऐसे संत ही गुरु नानक की दृष्टि में ज्ञानी हैं और अन्य जीवों को ज्ञान-दान करके मोक्ष-मार्ग पर लाने वाले होते हैं। ... संत किस प्रकार गुमराह व्यक्तियों को मार्ग पर लाते हैं इसका एक छोटाउदाहरण हैमैं बादशाह हूँ
एक बादशाह रात को अपनी राजधानी के किसी मार्ग पर अकेला आ रहा था। सामने से एक अत्यन्त वृद्ध संन्यासी जिसे बहुत कम दिखाई दे रहा था, धीरे-धीरे लाठी लिए आ रहा था। बादशाह ने अपने आपको सम्राट मानते हुए रास्ते से हटने की आवश्यकता नहीं समझी और सन्यासी को अंधेरे के कारण बराबर दिखाई नहीं दिया अतः वह बादशाह से टकरा गया।
बादशाह को बड़ा क्रोध आया और पूछ बैठा-"देखकर नहीं चलते ? कौन हो तुम ?
बादशाह के बोलने के ढंग से और शरीर की आकृति बगैराह से संन्यासी की अनुभवी आँखों ने बादशाह को पहचान लिया और उन्हें कुछ सीख देने के उद्देश्य से शांति पूर्वक उत्तर दिया-"मैं बादशाह हूँ।"
बादशाह खिलखिलाकर हँस पड़ा और उसने व्यंग तथा कौतूहलवश पूछा"अच्छा आप बादशाह हैं ? पर आपका राज्य इस संसार में किस स्थान पर हैं ?
संन्यासी ने शांति से कहा- "मेरे मन पर ।"
बादशाह ने पुनः प्रश्न किया-'अच्छा सम्राट् ! जरा बताइये कि मैं कौन हूँ ?
'तुम गुलाम हो ।” साधु ने अविलम्ब और स्पष्ट शब्दों में कह दिया ।
यह सुनते ही बादशाह क्रोध के मारे आग बबूला हो गया और गश्त लगाने वाले सिपाहियों से पकड़वाकर सन्यासी को कैद करवा दिया ।
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