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________________ कर्म लुटेरे ! आता है, तो वे भविष्य में होने वाले दुख में दुखी होते हैं। साथ ही पश्चाताप भी करते हैं कि हमने किन-किन जन्मों में क्या-क्या पाप किये थे और अब उनका क्या-क्या फल भोगना पड़ेगा। ध्यान में रखने की बात तो यह है कि वे पश्चाताप करते हुए भी वहाँ रहकर उत्तम करनी नहीं कर सकते, जो कि मानव-भव में की जा सकती है। तो कवि का कहना यहीं है कि मैं सुख की खोज में अन्तकाल से भटक रहा हूं पर वह मुझे नहीं मिला उलटा दुख ही प्राप्त होता रहा है। देवगति में भी जहाँ पंचेन्द्रियों का ऐश-आराम है, सुख नहीं माना जा सकता। क्योंकि अंत में जहां दुख है वहाँ सच्चा सुख नहीं होता । सच्चा सुख तो वही कहलाता है जो मिलने के पश्चात फिर कभी जाता नहीं। अतः हे भगवन ! अब मुझे आप अपने में मिलालो। इस संसार में भटकते-भटकते मैं बहुत परेशान हो गया हूं और अब आपके चरणों की शरण लेना चाहता हूं । आप मुझे मुक्ति का सही मार्ग बताओं और इस संसार-चक्र से छुड़ाओ। ____ हम इस संसार में देखते हैं कि मछली आमिष की लालसा में कांटा निगल जाती है और फिर मरते समय तिलमिलाते हुए भगवान की याद करती है, उसी प्रकार सांसारिक मानव इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए नाना प्रकार के पाप करते हैं पर जब उन्हें भोगने का वक्त आता है तो रोते हैं, पश्चाताप करते हैं और राम-राम या अर्हत-अर्हत कहते हुए भगवान को याद करते हैं। पर उस समय फिर क्या हो सकता है ? जब तक युवावस्था रहती है और शरीर शक्ति-सम्पन्न होता है, तब तक तो वे त्याग-तपस्या, व्रत, नियम कुछ भी ग्रहण नहीं करते, अपना थोड़ा सा समय भी धर्माराधन में व्यय नहीं करते । किन्तु जब वृद्धावस्था आ जाती है, शरीर में रोग अपना अड्डा जमा लेते हैं और शक्ति काफूर हो जाती हैं तब भगवान को याद करते हैं तथा कृत-पापों के लिए पश्चाताप करते हैं । पर उससे फिर क्या बन सकता है ? केवल वही कहावत चरितार्थ होती है- "फिर पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गइ खेत।" अब मैं अपनी पूर्व कविता पर आता हूं। जिसमें आगे कहा गया है मेरा, आतम धन सब लूटा, जब से शिव मारग छूटा। मैं ऐसा जुलम नहीं जाना, कर्मों से पड़ा है पाना । कवि का कहना है-इन कर्मों ने मेरा समस्त आत्म-धन लूट लिया है। बड़ी कठिनाई से थोड़ा सम्यज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यक् चारित्र रूपी धन आत्मा ने कमाया था किन्तु मेरी अज्ञानता के कारण कर्मों का दाव लग गया और उन्होंने डाका डालकर उसे लूट लिया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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