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________________ ३०२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ अज्ञानदशा क्या है ? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि यद्यपि ज्ञान प्राप्त किया, किन्तु उसके लिए गर्व का भाव आ गया तो प्राप्त ज्ञान भी अपना शुभ फल प्रदान नहीं कर सकता । कोई ज्ञानी व्यक्ति स्वाध्याय करता है, भगवान की भक्ति और प्रार्थना करता है किन्तु घर में अथवा समाज में औरों के वह सत्र न करने पर अपनी प्रशंसा तथा दूसरों की निन्दा करता है तो उसका अहम् उसके ज्ञान और भक्ति के फल को मिट्टी में मिला देता है । और परिणाम यह होता है कि वह कितनी साधना तथा तपस्या क्यों न करे अपने अज्ञान के कारण कर्मों की निर्जरा नहीं कर पाता । इसीलिए भगवान ने कहा है जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाई वास कोड़ीहि । तं नाणी तिहिंगुत्तो खवेइ ऊसासमित्तरेण ॥ जिन कर्मों को क्षय करने में अज्ञानी करोड़ों वर्ष व्यतीत कर देता है, उन्हीं कर्मों को ज्ञानी आत्मा क्षण मात्र में नष्ट कर देती हैं । वस्तुतः गर्व, मिथ्यात्व, इर्ष्या, निन्दा आदि समस्त दोष अज्ञान के कारण ही जन्म लेते हैं । और इसीलिये अज्ञानी वर्षों तप करके भी अपने कर्मों को नहीं खपा पाता किन्तु ज्ञानी और विवेकी पुरुष जो दोषों से बचा रहता है अल्प समय में ही अपने अनेकानेक कर्मों का क्षय कर लेता है । कर्मों का क्षय कर लेता है । कर्मों का भुगतान कभी बाँटा भी नहीं जा सकता है । जो FETT है वही भोगता भी है । इसी दृष्टि से किसी कवि ने जीव को चेतावनी I दी है पापों का फल एकसे, भोगा कितनी बार । कौन सहायक था हुआ, करले जरा विचार ? वस्तुतः पापों का बंधन तो अन्य अनेक प्राणियों की सहायता से किया भी जा सकता है, उसमें अनेक सहायक बन सकते हैं और बनते ही हैं । किन्तु उनके फल को जीव अकेला ही भोगता है, उसे बाँटने में कोई सहायक जिस प्रकार दस गायें और उनके दस बछड़े एक स्थान नहीं बनता । पर खड़े हैं । बछड़े छोड़ देने पर अपनी-अपनी माता के पास दूध पीने के लिये जाते हैं । किन्तु गाय अपने बछड़े के पास आने पर उसे ही दूध पिलाती है अन्य को नहीं । दूसरी गाय का बछड़ा अगर उसके पास आ जाय तो लात मार देती है । इसी प्रकार कर्म भी जिसने किये हैं, उसी को चिपटते है और उसे ही भुगतने पड़ते । तभी कवि ने कहा है कि लोभ, लालच बेईमानी एवं घमंड आदि जो दोष मेरी अज्ञानावस्था के कारण पैदा हुए थे उनके कारण मेरा आत्म-धन जो कि दया, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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