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________________ कर्म लुटेरे ! २६६ पदार्थ मन को ललचाने के लिये चारों और बिखरे पड़े हैं । जीवात्मा ज्योंही इन्हें भोगने में मशगूल होता है त्योंही कर्म घेरा डालकर उसे कस लेते हैं तथा जन्मांतर तक कष्ट पहुँचाते रहते हैं। मुझे भी झूठा सुख प्रदान करने वाले संसार के इन पदार्थों ने भ्रम में डाल दिया और मैं पुद्गलों के ललचाने से इन भोगों में लिप्त होकर कर्म बन्धनों से जकड़ गया हूँ। पर, हे प्रभो ! आज मुझे बड़ा पश्चाताप हो रहा है और मैं सोच रहा हूँ कि महापुरुष धन्य हैं जो सांसारिक पदार्थों से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुखों के . प्रलोभन में नहीं फंसे और अपनी आत्मा को इनसे बचाकर अपने कर्मों का नाश कर संसार मुक्त हो गए । आप भी ऐसे महा-मानव, संत-महात्मा हैं जो संसारी चीजों को आत्म-घातक मानकर उन्हें ठुकरा देते हैं। वे समझते हैं कि अगर हम पुद्गलों के चक्कर में फंस गए तो अपने आत्म-स्वरूप से दूर हो जाएंगे। वे यह भी जानते हैं कि दो विरोधी कार्य कभी एक साथ नहीं हो सकते । एक व्यक्ति एक ही बार में हँसना और मुंह चढ़ाना, दोनों नहीं कर सकता, इसी प्रकार जो व्यक्ति पुद्गलों में आसक्त हो, वह उनसे विरक्त नहीं हो सकता। 'निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग दोनों अलग-अलग और परस्पर विरोधी है। इसलिये इन दोनों पर एक साथ नहीं चला जा सकता । जिसके हृदय में भोगोपभोगों के प्रति आसक्ति है वह वैराग्यावस्था को कैसे पा सकता है ? ग्रहण करना और छोड़ना दोनों साथ चल भी कैसे सकते हैं। तो यह मैं आज समझ रहा हूँ, किन्तु अज्ञानावस्था में रहकर जो पाप-कर्म मैंने उपार्जित कर लिये हैं और वे मुझे नाना-योनियों में भटकाकर नचा रहे हैं इन्हें मैं किस प्रकार नष्ट करूं और किस मार्ग पर चलकर शिवपुर पहुँचू !" संत तुकाराम जी ने भी कहा है "आमिषाच्या आशे, गल गिली मासा, ___फाटोनिया घसा, मरण पाये । मरणाच्या वेली, करी तल मल, आठवी कपाल, तये वेली ॥ मांस का टुकड़ा या अनाज खाने के लोभ में मासा यानी मछली को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़ते हैं । वह किस प्रकार मरती है यह आप में से अधिकांश व्यक्ति जानते होंगे। क्योंकि प्रायः नदी या तालाब के किनारों पर मच्छी मार मछली पकड़ते हुए दिखाई देते हैं । आप लोग कुए में पड़ी हुई वस्तु को गल-आंकड़े में फंसाकर बाहर निकालते हैं । वैसा ही एक तीखा आंकड़ा मछली पकड़ने वाला प्रत्येक व्यक्ति रखता है और उसमें आटा या मांस का टुकड़ा फंसा देता है । मछली उस वस्तु को खाने के लोभ में पड़कर निगल लेती है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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