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________________ २६८ आनन्द-प्रवचन भाग-४ ये जबर्दस्त कर्म बुरी तरह से मेरे पीछे पड़े हुए हैं और भिन्न-भिन्न योनियों में नाना-स्वरूप दिखाते हुए भव-भव रूपी मंडपों में नचा रहे हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्याय में भी कर्मों के करिश्मे के विषय में कहा गया है - एगया खत्तिओ होइ, तओ चंडाल वुक्कसो । तओ कोड पयंगो य, तओ कुंथु पिवीलिया । अर्थात्-अपने कर्मों के अनुसार जीव कभी क्षत्रिय, कभी चाण्डाल, कभी वर्ण शंकर और कभी-कभी कीट, पतिंगा. कुथुआ और चींटी भी हो जाता है । यही बात कवि कह रहे हैं कि इन कर्मों के चक्कर में पड़कर मैंने कभी तो क्षत्रिय बनकर उच्च जाति में जन्म लिया और कभी चाण्डाल बनकर नीच जाति में पैदा हआ। पर इतने से भी कर्मों को संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने मुझे वर्णशंकर की स्थिति में पटक दिया और मेरी प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। . उसके पश्चात् भी कीड़ा, पतिंगा, कुथुआ चींटी और उससे भी अधिक सूक्ष्म शरीरों वाला प्राणी बनाकर असह्य दुःख सहने के लिये बाध्य किया । इस प्रकार नाना-स्वरूपों यानी नाना योनियों में पैदा करके इन कर्मों ने मुझे नचाया है । अतः प्रभो ! आप ही बताएं कि इनसे बचकर मैं किस प्रकार मोक्ष में जाऊँ ? आगे कहा है__ मुझे पुद्गल ने ललचाया अपना स्वरूप विसराया। अब आया बहुत पछताना, कर्मों से पड़ा है पाना ।। कवि का कथन है कि- "अज्ञानावस्था के कारण मेरा मन पुद्गलों में आसक्त बना रहा और मैं सांसारिक भोगोपभोगों उलझकर आत्मा के मान को भूल गया । पुद्गलों को ललचाने वाले ये पदार्थ इतने मनमोहक हैं कि इनके आकर्षणों से मन बच नहीं सका। राजा-महाराजा शेर का शिकार करने के लिये जाते हैं तो उसके लिये पूरा इन्तजाम करते हैं । एक बाड़ा बनाया जाता है और उसमें बकरी या भैसा बाँध देते हैं । शेर बँधे हुए जानवर को खाने के लिये ज्योंही बाड़े के अन्दर जाता है, उसका दरवाजा बंद हो जाता है और उसी समय वह शिकारियों के द्वारा गोली से छलनीकर दिया जाता है। इस प्रकार शेर जैसा शक्तिशाली, और खूखार प्राणी भी खाने के लोभ में पड़कर अपनी जान गंवा देता है। ठीक यही दशा मेरी भी हुई है। इस संसार रूपी बाड़े में भोगोपभोगों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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