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________________ २८८ आनन्द-प्रवचन भाग-४ और जैसे भी मिले सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये, चाहे वह संतों के सदुपदेशों से मिले या धर्मशास्त्रों से । ध्यान में रखने की बात यह है कि उसे अधिक तर्क-वितर्क और भिन्न-भिन्न मतामत में उलझकर अपने मार्ग को त्यागना या गुमराह नहीं होना चाहिये। अगर विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न-विभिन्न विचार उसे दिखाई देते हैं तो महापुरुषों के जीवनों को ही अपना मार्गदर्शक मानकर उन्हीं के अनुसार चलने का प्रयत्न करना चाहिये। अर्थात् उनके गुणों को अपनाते हुए निष्ठापूर्वक उनका पालन करने का निश्चय करना चाहिये। महापुरुषों की जीवनियाँ हमारे समक्ष दर्पण का काम करती हैं । आप दर्पण देखते हैं और उसमें देखकर अपने चेहरे पर लगे हुए किसी निशान को या धब्बे को अविलम्ब मिटा लेते हैं। इसीप्रकार महाजनों की, यानी महान पुरुषों की, जीवनी-रूपी दर्पण को सामने रखकर भी आप अपने जीवन में रहे हुए दुर्गणों को हटा सकते हैं, अपने दोषों के धब्बों को मिटा सकते हैं। उनके चरित्र-रूपी आइने के द्वारा आप उनकी विशेषताओं की, उनके त्याग, तप और बलिदान की तथा वे जिस मार्ग पर चले थे, उसकी जानकारी कर सकते हैं तथा उनके चरण-चिन्हों पर चलकर अपनी आत्मा का उद्धार कर सकते हैं। वे हमारे समक्ष जो-जो आदर्श उपस्थित कर गये हैं तथा जिस मार्ग पर चले हैं, वही मार्ग हमारे लिये मुक्ति का मार्ग साबित हो सकता है। अतः उनका अनुकरण करना ही भव्य प्राणियों के लिये उचित एवं कल्याणकारी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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