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________________ सच्चा पंथ कौन-सा ? श्रुतयो विभिन्ना, स्मृतयोश्चभिन्नाः । नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ॥ धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् । महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ हिन्दु धर्म में श्रुति शास्त्र और स्मृति-शास्त्र अलग-अलग हैं। श्रुति शास्त्र आत्मा के विषय में विशद विवेचन करते हैं और स्मृति शास्त्र क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसे स्मरण रखने का आदेश देते हैं । Jain Education International २८३ तो साहित्यकार का कथन है कि श्रुति-शास्त्र जिन्हें वैष्णव धर्मग्रन्थों की उपनिषद् कहा जाता है, उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार मिलते हैं तथा स्मृतियों में भी यही बात है कि एक में जो बात पाई जाती हैं वह दूसरी में नहीं दिखाई देती । मनुस्मृति, दक्षस्मृति, कात्यायन स्मृति, आदि अष्टादश स्मृतियाँ मेरे देखने में भी आई हैं । तो कहा गया है कि श्रुति वचन भिन्नभिन्न हैं । और स्मृति वचन भी भिन्न-भिन्न हैं । इसके अलावा मुनिजनों के वचनों को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता तो फिर धर्म को किस प्रकार समझा जाय ? ऐसा लगता है कि विभिन्न श्रुतियों, विभिन्न स्मृतियों और भिन्न-भिन्न महापुरुषों के विचार भी भिन्न-भिन्न होने के कारण धर्म का तत्व तो किसी गहन गुफा में जाकर छिप गया है, जिसे बाहर लाया नहीं जा सकता । तो अब समस्या उठ खड़ी होती है कि जब धर्म के रहस्य को जाना नहीं जा सकता तो आखिर किया क्या जाय ? बिना किसी आधार के और बिना किसी सहायक के जीवन को किस प्रकार चलाया जाय ? तो उसका उत्तर देते हैं - 'महाजनो येन गतः स पन्था ।' अर्थात् श्रुति स्मृति एवं अन्य शास्त्रों के मत विभिन्न हैं तो रहने दो, हमें तो उस मार्ग से चलना चाहिए जिससे महापुरुष, ऋषि, महर्षि भक्त आदि गये हैं । इधर-उधर के पचड़े में न पड़कर सत्य, शील, तप आदि गुणों से जिन महापुरुषों ने आत्म-कल्याण किया है । हम भी उन्हीं गुणों को अपनाएँ । हमारे यहाँ चौपाई पढ़ने का रिवाज है | चौपाई यानी चारपाई, चार पायों वाली चीज । दान, शील, तप और भाव में भी धर्म के चार पाये हैं और ऐसे धर्म कथानकों को जिनमें ये चारों चीजें होती हैं हम पढ़ते हैं आप सुनते भी हैं। पर सुनकर उसका निचोड़ जो आत्मा के लिए ग्रहण करना चाहिए । पढ़ने और सुनने का लाभ तभी हासिल हो जबकि उसमें से सार तत्व ग्रहण किया जाय । प्रत्येक महापुरुष के कुछ ऐसी अच्छाइयाँ होती हैं जिन्हें ग्रहण करके व्यक्ति स्वयं भी महान् बन कल्याणकारी है, उसे सकता है जीवन में सकता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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