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________________ २८४ आनन्द-प्रवचन भाग-४ राजा हरिश्चन्द्र की जीवनी सत्य-धर्म को प्रकाशित करती है। उन्होंने सत्य का पालन करने के लिये अपना राज्य-पाट छोड़ा, पत्नी से दासी वृत्ति कराई और स्वयं भी शूद्र के यहाँ काम करते रहे। सब संकटों को सहन किया किन्तु अपने सत्य का त्याग नहीं किया। किन्तु आखिर में विजय उन्हीं की हुई और सम्पूर्ण विश्व में उनकी ख्याति फैली। स्वयं देवताओं को भी उनके सत्यव्रत ने अपने चरणों पर झुका लिया । इसीलिए कहा है सत मत छोड़ो सांइयां, सत छोड़े पत जाय । सत की बाँधी लक्ष्मी, फेर मिलेगी आय ॥ ___ यानी सत्य का त्याग मत करो। अगर इसे त्याग दिया तो इज्जत और प्रतिष्ठा भी चली जाएगी जो लाख प्रयत्न करने पर भी पुनः प्राप्त नहीं होगी और उसके विपरीत सत्य पर दृढ़ रहे तो उसके कारण गई हुई लक्ष्मी अवश्य ही लौटकर आ जाएगी। जिस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र सत्य पर दृढ़ रहे तो उनका गया हुआ विशाल राज्य पुनः मिल गया यानी लक्ष्मी को लौटकर आना ही पड़ा। इसी प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तमराम की जीवनी से भी शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति को अपने वचनों की प्राण देकर भी रक्षा करनी चाहिये । राम को वनवास करना पड़ा, वह भी कम नहीं, पूरे चौदह वर्षों के लिये । यद्यपि राम न चाहते तो वन में न भी जाते किन्तु कैकयी को दिए हुए अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिये वे सहर्ष वन में गए और अपने उज्ज्वल कुल के गौरव की रक्षा की । तभी तो आज तक गाया जाता है - रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जायें पर वचन न जाई । रोमायण के द्वारा सतीत्व के पालन का भी एक महान् आदर्श हमारी बहिनों के सम्मुख उपस्थित होता है । रावण ने सीता का बलपूर्वक हरण किया किन्तु लाख प्रयत्न करने और समझाने पर भी वह अपने पातिव्रत्य से बाल भर भी नहीं डिगी । शीलव्रत का इस प्रकार अखंड पालन करने के कारण ही आज घर-घर में सीता सती की महिमा गाई जाती है और कहा जाता है-“सती न सीता सारखी ।' - राजा कर्ण को आज घर-घर में लोग उनके दान के कारण स्मरण करते हैं । प्रातःकाल के समय में अगर कोई झगड़ा-झंझट करता है या अप्रिय शब्द बोलता है तो लोग कहते हैं- "राजा कर्ण का वक्त है इस समय तो कम से कम धीरज रखो।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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