SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ बाद अपने अपने स्थान पर ठीक हैं क्योंकि कोई भी कार्य इन सबके सुमेल से से ही हो सकता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि किसी एक के द्वारा ही कार्य की सिद्धि हो जाय । महावीर का कथन यथार्थ है। उदाहरणस्वरूप हम किसी भी फसल को ले सकते हैं। किसान अपने खेत में फसल पैदा करने के लिए बीज बोता है। यद्यपि बीजों का फसल के रूप में आने का स्वभाव है, किन्तु बोना और बोकर उसकी रक्षा करने का पुरुषार्थ किसान न करे तो क्या उसे अपने प्रयत्न का फल मिलेगा ? साथ ही बोने व रक्षा करने का पुरुषार्थ भी कर लिया पर जब तक निश्चित काल का परिपाक नहीं होगा, तब तक फसल कैसे तैयार हो जाएगी ? आज फसल बोकर कोई चार दिन बाद ही उसे काट लेना चाहे तो क्या यह संभव है ? नहीं । अब शुभ कर्म को लीजिए ! फसल बो दी, उसकी रक्षा का पुरुषार्थ भी कर लिया और काल के परिपक्व होने की प्रतीक्षा भी धैर्य के साथ की जा रही है। किन्तु अगर अशुभ कर्म का उदय है अर्थात् शुभ कर्म अनुकूल नहीं है तो फसल को कीड़ा लग सकता है, टिड्डी दल भी कभी-कभी उसे तहस-नहस कर डालता है अथवा पाला पड़ने से भी फसल खराब हो जाती है और इस प्रकार कर्म-वाद अपना प्रभाव दिखाता है। अब रहा नियति । बीज के द्वारा फल की प्राप्ति होना प्रकृति का नियम है ही अगर पुरुषार्थ, काल और कर्म अनुकूल हों तो। __ इस प्रकार अनेकांतवाद के द्वारा किया जानेवाला समन्वय ही यथार्थ है और यथार्थ होने के कारण संसार को सत्य का परिचय देता है। कुछ व्यक्ति स्याद्वाद सिद्धान्त के संबन्ध में कहते हैं कि वह एक दूसरे के विरोधी धर्मों को एक ही वस्तु में स्थापित करता है, किन्तु वे सभी परस्पर विरोधी धर्म एक ही स्थान पर कैसे रह सकते हैं ? ___ऐसा मानने और कहने वालों की अज्ञानता पर खेद होता है। उन्हें समझना चाहिए कि एक ही व्यक्ति किसी का पिता, किसी का पुत्र और किसी का भाई होता है । और पितृत्व, पुत्रत्व तथा भ्रातृत्व परस्पर विरोधी होने पर भी क्या एक ही व्यक्ति में नही रहते ? रहते हैं, और निविरोध रहते हैं। वह व्यक्ति एक साथ ही अप ने तीनों उत्तरदायित्वों का सरलता से और समीचीन रूप से पालन करता हुआ देखा जाता है। स्याद्वाद के इस अनुपम सत्य को न समझने के कारण विश्व में विविध धर्मों, दर्शनों, मतों, पन्थों और सम्प्रदायों में व्यर्थ के विवाद खड़े हो जाते हैं। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म को असत्य और मिथ्या बतलाते हैं। वे केवल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy