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________________ २५४ आनन्द-प्रवचन है उसे नहीं समझते तो उन्हें इन बातों की जानकारी दी जा सके । ऐसा किये विना धर्म का प्रचार और प्रसार नहीं हो सकता । तो आचरण का सार परूपणा अर्थात् अज्ञानियों को सदुपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने में है। आगे कहा गया है: - सारो परूवणाए चरणं, तस्स विय होइ निव्वाणं । निव्वाणस्स उ सारो, अब्बावाहं जिणाहु ति ॥ गाथा में पूनः प्रश्न किया गया है कि-प्ररूपणा का सार क्या है ? उत्तर दिया है-चरण । अर्थात् आचरण करना । उत्तर यथार्थ है कि हम जिस बात की प्ररूपणा करें यानी जिस कार्य को करने का औरों को उपदेश दें पहले स्वयं भी उसका पालन करें। क्योंकि 'परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषाम् सुकरं नृणाम्।" । दूसरों को उपदेश देना और उनके समक्ष अपने पांडित्य का प्रदर्शन करना सरल है । पर उसके अनुसार हमारा स्वयं का आचरण भी पहले होना चाहिये। तभी लोगों पर हमारी बात का प्रभाव पड़ सकता है। संत-मुनिराजों की शिक्षाओं का प्रभाव लोगों पर जल्दी क्यों पड़ता है ? इसलिये कि वे जिस कार्य को जनता से कराना चाहते हैं, पहले स्वयं करते हैं। अगर वे ऐसा न करें तो लोग उनके आदेश को नहीं मान सकते । एक छोटा सा उदाहरण है___एक व्यक्ति किसी महात्मा के पास अपने पुत्र को लाया और बोला"महात्मन ! मेरा यह लड़का सदा बीमार रहता है । डाक्टरों से इसका इलाज करवाता हूँ पर वे दवा देने के साथ-साथ कहते हैं कि इसे गुड़ मत खाने दो, अन्यथा दवा इसको लागू नहीं होगी और यह ठीक न हो सकेगा । मैं इसे बारबार गुड़ छोड़ देने के लिये कहता हूँ पर यह मानता नहीं। कृपया आप इसे समझाइये और गुड़ छोड़ देने की आज्ञा दीजिये। आपका प्रभाव ही इस पर पड़ सकता है और यह गुड़ खाना छोड़ सकता है।" , महात्मा जी ने कुछ क्षण विचार किया और फिर बोले- "भाई ! मैं इसका गुड़ खाना अवश्य छुड़वा दूंगा किन्तु तुम इसे एक सप्ताह बाद मेरे पास लाना।" ___व्यक्ति कुछ नहीं बोला और पुत्र को लेकर वापिस चला गया। एक सप्ताह बाद वह पुनः लड़के के साथ आया और महात्मा जी ने उसे प्रेम से समझाकर गुड़ खाना छोड़ने का आदेश दिया। लड़के ने महात्मा जी की आज्ञा मान ली और उस दिन के बाद एकबार भी गुड़ का सेवन नहीं किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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