SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारः परमोधर्मः २५३ इसी प्रकार मन से विचार कर लिया, वाणी से उसको प्रकट भी किया किन्तु जब तक उसे आचरण के द्वारा जीवन में नहीं उतारा तो विचार और उच्चार से क्या लाभ हुआ ? कुछ भी नहीं। आत्म-कल्याण के लिये आचरण आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। एक गाथा आपके सामने रखता है, जिसे बड़ी गंभीरता से समझने की आवश्यकता है । गाथा इस प्रकार है 'अंगाणं कि सारो, आयारो तस्स कि सारो। अंगुहो गत्थो सारो, तत्सुही परूपणा शुद्धी । व्यावहारिक भाषा में हम अंग शरीर को कहते हैं । परमार्थिक दृष्टि से यहाँ इसका अर्थ द्वादशांग वाणी से है । वैसे द्वादशांग का एक अंग लुप्त हो चुका है अत: वर्तमान में एकादशांग वाणी ही मानना है । __तो गाथा में प्रश्नोत्तर है और प्रश्नकर्ता ने पहला प्रश्न यह पूछा है कि इन एकादश अंगों का सार क्या है ? उत्तर दिया गया है-इनका सार आचरण है । दूसरा अर्थ आचारांग सूत्र से भी लिया जाता है। तो अंगों का सार आचार का पालन करना बताया गया है। जो भगवान ने चारों तीर्थों के लिये कहा है ? फिर प्रश्न पूछा-उसका भी क्या सार है ? तो उत्तर दिया- 'अंगुहो गत्थो सारम् ? अर्थात् भगवान के फरमाये हुए जिन आदेशों को आपने पढ़ा, श्रवण किया तथा धर्मशास्त्रों से जाना, उस पर चिंतन करते हुए उसके पीछे-पीछे चलना । मूल पाठ है कि जिनेश्वर भगवान की आज्ञा आगे रहेगी और चलने वाले पीछे रहेंगे। इस प्रकार जिनेश्वर प्रभु की आज्ञा पालन में सार है। प्रश्न फिर पूछा-उसका भी सार क्या है ? तो उत्तर मिला-परूपणा है । अर्थात् परोपदेश देना । क्योंकि हम भगवान की आज्ञानुसार चले तो अपने लिये ही कुछ किया। किन्तु उससे जनता को क्या लाभ मिला ? अतः भगवान् की आज्ञाओं को औरों के हृदय में बिठाना तथा उन्हें सरल ढंग से समझाने के लिये उपदेश देना । अगर एक व्यक्ति स्वयं सन्मार्ग पर चलता है, वह तो अच्छा ही है पर कुमार्ग पर जानेवाले अन्य व्यक्ति को भी सन्मार्ग पर ले आता है तो वह बड़े पुण्य का कार्य है। आप देखते ही हैं कि संत मुनिराज सदा एक गाँव से दूसरे गाँव में जाते हैं । वह क्यों ? क्या उन्हें लोगों से पैसों की वसूली करनी है, अथवा सेठ-साहूकारों से कोई जागीर लेनी है ? नहीं, वे केवल इसीलिये विचरण करते हैं कि जो व्यक्ति धर्म क्या है यह नहीं जानते और शास्त्र या उसकी वाणी क्या होती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy