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________________ २५२ जाएगा कि कार्य किस प्रकार और किस विधि से करना है । इन सब बातों का निश्चय करना ही मनोयोग का काम है । आनन्द-प्रवचन भाग - ४ मनोयोग के पश्चात् वचनयोग का कार्य प्रारम्भ होता है । मन के द्वारा किसी भी कार्य के करने का निश्चय हो जाने पर वे विचार जबान पर आते हैं । वाणी, मन में उमड़ने वाले विचारों की ही प्रतिध्वनि होती है । अगर मन में विचार न आएँ तो वे वाणी में भी नहीं उतर सकते । क्योंकि वाणी में विचार करने की शक्ति नहीं है, केवल उच्चारण करने की सामर्थ्य होती है । इसलिये विचार न होने पर उच्चार भी नहीं हो सकता । अथवा राजनीति से । विचार, उच्चार और आचार, ईन तीनों में 'चर' धातु का प्रयोग होता है जिसका अर्थ है ' चलना' । मन में विचार आया कि ऐसा करना है, तो वचन के द्वारा शब्द उठते हैं कि 'हमको यह करना है ।' विचार चाहे सामाजिक विषय से सम्बन्ध रखता हो या कर्म वे उठते मन में हैं और तब वचनों से जाहिर होते हैं । कहने का अर्थ यह है कि किसी भी कार्य की नींव मन के विचारों से रखी जाती है अतः मन में शुद्ध विचार आने चाहिये । जिन व्यक्तियों के पल्ले में पुण्य होता है, उनके मन में शुभ विचार आते हैं और इसके विपरीत जो पुण्यहीन होते हैं, उनके मन में अशुभ विचारों का उदय होता है । तो मैं बता यह रहा था कि पहले मन में विचार आते हैं. उसके पश्चात् वे वाणी से उच्चरित होते हैं और उसके बाद आचरण में जब तक विचार कार्य रूप में नहीं आते अर्थात् आचरण में तक उनका कोई महत्व नहीं माना जाता । इसीलिये शास्त्रकारों ने आचार को महत्व दिया है । यद्यपि रत्नत्रय में पहले सम्यक्दर्शन, फिर सम्यक्ज्ञान और उसके बाद सम्यक् चारित्र का नम्बर है | सम्यक्दर्शन से ज्ञान पक्का होता है और ज्ञान के साथ विवेक मिलकर आचरण को शुद्ध और सम्यक् बनाते हैं । तो पहले सम्यक्दर्शन यानी श्रद्धा होती है और उसके बाद सम्यक् ज्ञान । किन्तु इन दोनों के होने पर भी अगर चारित्र नहीं रहा तो दोनों की कोई कीमत नहीं है । आप कहेंगे ऐसा क्यों ? Jain Education International वह इसलिये कि जिस तरह आप मकान बनवाते समय कम्पाउंड, दरवाजा, खंभे और दीवालें सभी कुछ बनवा लेते हैं । किन्तु उनकी दीवालों पर छत नहीं बनवाई तो वह मकान क्या आपको सर्दी, गर्मी और बरसात से बचा सकेगा ? नहीं, छत के अभाव में आपके मकान की दीवारें, खिड़कियें और रास्ते किसी काम नहीं आएँगे । व्यवहृत होते हैं । नहीं लाये जाते तब For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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