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________________ २० आचारः परमोधर्मः धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! आपने प्रायः पढ़ा होगा और सुना भी होगा -- 'आचारः परमोधर्मः ।' अर्थात् आचरण को पूर्ण विशुद्ध रखना सबसे बड़ा धर्म है । मानव के जीवन में आचार को प्रधानता दी गई है । जिसका आचरण पवित्र होता है उस व्यक्ति का संसार में सम्मान होता है और वह अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है । यद्यपि इस जगत् में अनेक व्यक्ति रूप सम्पन्न होते हैं, अनेक धन-सम्पन्न और अनेक सत्ता सम्पन्न पाये जाते हैं । किन्तु अगर वे आचार सम्पन्न नहीं होते तो उनकी अन्य सम्पन्नताएँ व्यर्थ मानी जाती हैं । उस तिजोरी के समान जो कि आकार में बड़ी है, सुन्दर है और फौलाद के समान मजबूत है, किन्तु अन्दर से खाली है, एक पाई भी उसमें नहीं है । जिस प्रकार ऐसी तिजोरी का होना या न होना बराबर है, ठीक इसीप्रकार अन्य अनेक विशेषताएँ होते भी आचरण हीन व्यक्ति का होना न होना समान है । रीती तिजोरी के समान ही उस मनुष्य का भी कोई महत्व नहीं है । आचार का अर्थ आचार का अर्थ है - मर्यादित जीवन बिताना । अगर व्यक्ति अपने जीवन को मर्यादा में नहीं रखता, अर्थात् अपनी इन्द्रियों पर एवं मन पर संयम नहीं रखता तो उसका आचरण भी कदापि शुद्ध नहीं रह पाता । हमारे यहाँ तीन प्रकार के योग माने योग, एवं कायायोग | गये हैं । वे हैं - मनोयोग, वचन मनोयोग का काम है— चिंतन करना या विचार करना । आप चाहे उत्तम कार्य करें या अधम, दोनों के लिए ही पहले मनोयोग द्वारा विचार किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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