SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारः परमोधर्मः २५५. कुछ दिन पश्चात् एकबार लड़के का पिता महात्मा जी के दर्शन करने आया तो उन्होंने पूछा - "क्यों भाई ! अब तो तुम्हारा लड़का गुड़ नहीं खाता ?" "नहीं महाराज ! आपके समझाने के बाद उसने गुड़ को हाथ भी नहीं लगाया ।" व्यक्ति ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया, साथ ही पूछा “भगवन ! एक प्रश्न आपसे पूछ सकता हूँ क्या ?" " निस्संकोच पूछो भाई !" महात्मा जी ने कहा । व्यक्ति बोला - " कृपया मुझे यह बताइये कि जब मैं पहली बार आपके पास अपने लड़के को लाया था उस समय भी आप उसे गुड़ न खाने के लिये समझा सकते थे । किन्तु आपने एक सप्ताह बाद उसे लाने की आज्ञा क्यों प्रदान की थी ? क्या उसके लिये किसी विशेष समय की आवश्यकता थी ?" महात्मा जी हँसे और बोले -- "नहीं भाई ! किसी अच्छी बात को समझाने लिये शुभ समय की आवश्यकता नहीं होती । शुभ कार्य के लिये तो प्रत्येक समय ही शुभ होता है । बात वास्तव में यह थी कि तुम पहली बार आये उस समय तक मैं भी गुड़ खाता था । और उस स्थिति में अगर मैं तुम्हारे पुत्र को गुड़ खाने से मना करता तो मेरी बात का उस पर कदापि असर नहीं होता । इसलिये मैंने तुम्हें एक समय बाद आने के लिये कहा था और उस बीच मैंने स्वयं गुड़ खाने का त्याग कर दिया और उसके बाद तुम्हारे लड़के को मना किया । परिणाम तुमने देखा ही है कि मेरे समझाने के बाद उसने एकबार भी गुड़ का सेवन नहीं किया ।" उदाहरण से स्पष्ट है कि जब तक व्यक्ति स्वयं त्याग नहीं करता, तब तक अगर वह औरों से उस त्याग के लिये कहै तो उसकी बात का असर नहीं पड़ा करता । इसीलिये संत-महात्मा अनेक प्रकार के त्याग स्वयं करते हैं और फिर अन्य व्यक्तियों को त्याग करने का उपदेश देते हैं । आप स्वयं भी यह महसूस करते होंगे कि अगर हम रात्रि को भोजन करें और आपको रात्रि - भोजन करने का त्याग कराएँ तो आप मानेंगे क्या ? इसी प्रकार अगर हम बीड़ी, सिगरेट या मदिरा का सेवन करते रहें और आपसे उसे छोड़ने का कहें तो आप उन्हें छोड़ेंगे क्या ? नहीं । इसके अलावा आप अपने आपसी व्यवहार को ही देख लीजिये, अगर आप लोगों को कोई धर्म - कार्य प्रारम्भ करना है और आप में से कोई व्यक्ति उसके लिए आगेवान होकर सबसे चंदा लेने के लिए बढ़ता है तो आप सबसे पहले यह देखेंगे कि उन महाशय ने स्वयं क्या दिया है ? अगर उन्होंने कुछ नहीं दिया होगा तो आप पहले सीधे ही " आपने क्या दिया है ?" उत्तर में अगर व्यक्ति ने अपनी दी हुई पूछ लेंगे - रकम बता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy