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________________ विषम मार्ग को मत अपनाओ ! २४७ ध्यान कभी नहीं गया और सांसारिक संबंधों में उलझा रहा तथा पर-वस्तुओं को अपने सुख का साधन मानता रहा । परिणाम यह हुआ कि मेरी कर्म-बंध की परंपरा बढ़ती रही और मैं संसार-बंधन की शृङ्खला में अधिकाधिक जकड़ता चला गया । संत-महापुरुषों ने मुझे अनेक बार चेतावनी दी - तू अति गाफिल होइ रह्यो शठ, कुञ्जर ज्यों कछु शंक न आने । माय नहीं तन में अपनो बल, भयो विषयासुख ठाने । मत्त खोंसत खात नीत सुन्दर - सबै दिन बीतत, अनीत कछू नह जाने । महारिपु, केहरि - काल उखारि दन्त कुम्भस्थल माने ॥ अरे शठ ! तू अत्यन्त गाफिल और असावधान हो रहा है । जिस प्रकार हाथी किसी से भयभीत नहीं होता, उसी प्रकार अपने शारीरिक बल के घमण्ड में चूर होकर तू भी किसी से नहीं डरता । तेरा जीवन विषय भोगों के आनन्द को लूटने में ही व्यतीत हो रहा है और असहाय व्यक्तियों के धन को छीनकर खाने और अन्याय-अत्याचार करने में समय जा रहा है । कवि सुन्दरदास जी कहते हैं - याद रख ! एक दिन काल रूपी भयंकर सिंह तुझे उसी प्रकार मार डालेगा, जिस प्रकार केशरीसिंह हाथी के दाँत उखाड़ कर उसका कुम्भस्थल फाड़ डालता है । Jain Education International तो अन्त समय पश्चाताप करनेवाला व्यक्ति विचार करता है कि मैंने महापुरुषों के सत्य परामर्श को भी नहीं माना और अपना जीवन व्यर्थ गँवा दिया । अब तो शरीर में शक्ति नहीं रही, और समय भी नहीं रहा कि अपनी भूल को सुधार सकूं । बंधुओ, ऐसी बातें सुनकर और पढ़कर प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए तथा इसी समय चेतते हुए अपने बचे हुए जीवन का सदुपयोग करने का प्रयत्न करना चाहिए । व्यक्ति को यह विचार नहीं करना चाहिए कि उसके जीवन का कितना समय बीत चुका है और कितना बाकी है । उसेजब जागे तभी सबेरा वाली कहावत को चरितार्थ करना चाहिए | क्योंकि मन में उत्साह और लगन हो तो व्यक्ति किसी भी उम्र से अपने जीवन को सुधारने में लग सकता है, और सफलता भी हासिल कर सकता है । ‘शेख सादी' जो कि फारसी के बड़े भारी विद्वान् थे उन्होंने चालीस वर्ष For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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