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________________ २४६ आनन्द-प्रवचन भाग-४ लाया था क्या सिकन्दर, दुनिया से ले चला क्या ? थे दोनों हाथ खाली, बाहर कफन से निकले। तो बन्धुओं, यह पंडित-मरण मरने वाले की विशेषताएं होती हैं कि वह मृत्यु के समय समस्त सांसारिक बन्धनों से अपनी आत्मा को सर्वथा मुक्त कर लेता है और यहाँ तक विचार करता है कि - 'मुझे कब वह उत्तम क्षण प्राप्त होगा, जबकि मेरी आत्मा इस संसार से मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वाभाविक, एवं पूर्ण निराकुल अवस्था को प्राप्त होगी तथा मैं सदा के लिये अक्षयसुख की प्राप्ति करूंगा।' इस प्रकार जो ज्ञानी मृत्यु का आलिंगन करते हैं वे अपने समाधि-भाव के कारण सुगति प्राप्त करते हैं । इतना ही नहीं, इतिहास तो यह बताता है कि जीवन भर पाप एवं अधर्म में रत रहने वाले महापापी भी अगर अन्त समय में अपनी भावनाओं में उत्कृष्टता ले आते हैं अर्थात् अपने पापों पर घोर पश्चात्ताप करते हैं तो वे अपने जीवन को सफल बना लेते हैं। गोशालक ने जीवन में भगवान् महावीर की घोर निन्दा की और सदा उनका अनिष्ट करने के प्रयत्न में लगा रहा ; किन्तु अन्त समय में उसने अपने कुकृत्यों के लिए हार्दिक पश्चाताप किया और समाधि भाव से मृत्यु को प्राप्त होकर आठवें देवलोक में गया। भाईयो ! प्रसंगवश मैंने आपको बालमरण और पंडितमरण के विषय में भी बता दिया है । क्योंकि हमारा मुख्य विषय यही चल रहा है कि जो भाग्यहीन व्यक्ति धर्म के मार्ग को छोड़कर अधर्म के विषम मार्ग पर चलते हैं वे जीवन की समाप्ति के समय गलत मार्ग पर चलते हुए गाड़ी की धुरी टूट जाने पर उस गाड़ीवान के समान घोर पश्चाताप करते हुए कहते हैं - "हाय ! मैं कैसा मूर्ख साबित हुआ कि जीवन भर धर्म रूपी अमृत का त्याग करके विषम-विष का पान करता रहा । अनन्त काल तक चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद न जाने कौन से पुण्य-कर्मों के उदय से - मुझे यह दुर्लभ मानव-जीवन मिला था और उच्च जाति, कुल, क्षेत्र तथा संतों के समागम का अवसर भी। किन्तु मैंने उनका लाभ उठाकर अपना जीवन धर्माराधन और सत्कार्यों में नहीं लगाया; उलटे विषय-भोगों की तृप्ति के साधन जुटाने में और उनके लिए नाना कुकृत्यों को करने में लगा रहा। सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझता हुआ कुमार्ग पर चलता रहा। आज तक मैंने अपनी आत्मा के विशुद्ध रूप के विषय में नहीं सोचा, केवल पर-पदार्थों में मगन रहा । आत्मा के शुद्ध, बुद्ध, आनन्दमय चैतन्य स्वभाव की ओर मेरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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