SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषममार्ग को मत अपनाओ ! २४५ छूटा जा रहा है। ऐसे मरण के कारण उसे कभी सुगति प्राप्त नहीं होती और पुन: पुन: इसी संसार में जन्म-मरण करना पड़ता है । पंडितमरण पंडितमरण अथवा सकाममरण यह मरण बाल - मरण से बिलकुल विप त होता है । जो व्यक्ति ज्ञानी होता है तथा आत्मा के स्वरूप को समझ लेता है वह मृत्यु के समय तनिक भी भयभीत नहीं होता । वह मृत्यु को कोई अद्भुत वस्तु नहीं मानता वरन् स्वाभाविक क्रिया समझता है । चूंकि वह अपना जीवन धर्मपूर्ण बिताता है तथा शक्ति के अनुसार त्याग, तपस्या, व्रत, पंचक्खान करता है अतः उसे अपने कर्मों का अशुभ फल प्राप्त होने का भय नहीं होता । और इसीलिये वह मृत्यु की भयंकरता को जीत लेता है । अपने अन्त समय में वह समस्त सांसारिक विषयों से उदासीन होकर अपने मन को संबोधित करता हुआ यही कहता है एतस्माद्विरमेन्द्रियार्थं गहना दायासकदाश्रय, मार्गशेषदुःखशमनव्यापार दक्ष क्षणम् । शांतं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां गति, भूयो मा भज भंगुरां भवति चेतः प्रसीदाधुना ॥ अर्थात् - हे चित्त ! अब तू विश्राम ले । इन्द्रियों के सुख-सम्पदा के लिये विषयों की खोज में अब मत लग । आंतरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे आत्मा का कल्याण हो और सम्पूर्ण दुखों का नाश हो । अब तो तू तरंग के समान अपनी चंचल चाल का त्याग कर दे तथा सांसारिक सुखों में सुख मत मान; क्योंकि ये असार और नाशवान हैं । अधिक क्या कहूँ, अब तू अपनी आत्मा में रमण कर और उसी में सुख का अनुभव कर ।" -: ज्ञानी पुरुष इसीप्रकार नाना प्रकार से अपने मन को सांसारिक प्रलोभनों से उदासीन बना लेता है और संसार की अनित्यता को स्मरण करता हुआ उसे समझाता है कि वह इस जंजाल से छूट जाय । वह विचार करता है‘इस संसार में बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट, कुबेर के समान ऐश्वर्यशाली पुरुष और बड़े-बड़े भू-स्वामी हो गये हैं, किन्तु जाते समय उन्हें भी अपना सब कुछ यहीं छोड़कर खाली हाथ जाना पड़ा है । हिन्दुस्तान को जीतने वाले सिकन्दर ने भी मरते वक्त लोगों से यही कहा था - ' मेरे दोनों हाथ कफन से बाहर रखना ताकि लोग शिक्षा लें कि मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही यहाँ से जाता है । कहा भी है Jain Education International -- For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy