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________________ २४४ आनन्द-प्रवचन भाग – ४ खिसक गई और गर्व चूर-चूर हो गया । तुरन्त ही वह राष्ट्रपति के पैरों पर गिर पड़ा और अपने अमानवीय व्यवहार के लिये बार-बार क्षमा माँगने लगा । जार्ज वाशिंगटन ने उसे क्षमा करते हुए कहा - " भविष्य में कभी तुम इस प्रकार निर्दयतापूर्वक किसी मजदूर से पेश मत आना ।" बंधुओ, यह उदाहरण देने में मेरा अभिप्राय यही है कि सेवा, सहायता अथवा सहानुभूति के ये मानवोचित गुण हृदय में तभी जागृत होते हैं, जबकि वहाँ धर्म का आवास होता है और इन गुणों के कारण संसार के अनेक व्यक्तियों को जब लाभ पहुंचता है तो वे अपने उपकारी को हृदय से दुआयें देते हैं तथा उसकी ख्याति को प्रसारित करते हैं । इस प्रकार धर्म का बाह्यफल भी प्रत्यक्ष में हासिल होता देखा जाता है । पर जो व्यक्ति धर्म को छोड़कर अधर्म का सेवन करते हैं उन्हें न इस लोक में कुछ हासिल होता है और न परलोक में ही कोई शुभ फल प्राप्त होने की संभावना रहती है । होता यह है कि वह अपने जीवन काल में भी संसार के व्यक्तियों के द्वारा अपमानित, तिरस्कृत और अपयश का भागी बनता है और अंत समय में हाय-हाय करता हुआ बाल-मरण को प्राप्त होकर कुगतियों में परिभ्रमण करता रहता है । बालमरण बालमरण और दूसरे शब्दों में अकाममरण अज्ञानी पुरुष का होता है । ऐसा व्यक्ति जीवन भर धन-सम्पत्ति में गृद्ध रहता है तथा पत्नी, पुत्र, पौत्र आदि की ममता में अपनी आत्मा का भान सर्वथा भूला रहता है । परिणाम यह होता है कि जब उसका अंत समय आता है तो वह अत्यन्त विकलतापूर्वक कहता है--" क्या कोई भी डाक्टर, वैद्य या औषधि मुझे मौत के मुँह में जाने से बचा नहीं सकती ? हाय ! मैंने इतनी कठिनाई से यह धन इकट्ठा किया है। यह अब मुझ से छूट जायगा ; मेरे प्राणों से भी प्रिय परिवार के व्यक्ति अब मुझसे छूट रहे हैं; न जाने अब आगे क्या होगा ? मेरी अनेक अभिलाषाएं अधूरी रह गईं, सारे मंसूबे मिट्टी में मिल गये । मेरी महान् कष्ट से उपार्जित की हुई सम्पत्ति को अब न जाने कौन भोगेगा ओर कौन मेरे परिवार का पालन-पोषण करेगा अब मैं क्या करू ँ ? कैसे मृत्यु से बचूँ ? कौन सा उपाय करूँ जो मरने से बच सकूँ ।" 1 इस प्रकार हाय हाय और त्राहि-त्राहि करते हुए अज्ञानी और अधर्मी व्यक्ति अपने जीवन को समाप्त करते हैं । उन्हें इस बात का दुख नहीं होता कि मैंने जीवन में धर्माचरण नहीं किया, जप, तप, व्रत, स्वाध्याय या शास्त्र श्रवण नहीं किया । वरन् दुख इस बात का होता है कि मेरा धन परिवार और संसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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