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________________ २४८ आनन्द-प्रवचन भाग-४ की अवस्था के बाद पढ़ना प्रारम्भ किया था। पर उसके पश्चात् भी वे इतने बड़े विद्वान् एवं विचारक बन गए कि उनके लिखे हुए ग्रन्थों को अच्छे-अच्छे विद्वान् आज तक भी पूर्णतया समझने में समर्थ नहीं हो सके । पर यह हुआ कब? जबकि उन्हें अपने अज्ञान पर खीझ पैदा हुई और स्वयं को तिरस्कृत करते हुए उन्होंने कहा चहल साल उम्र अजीदद गुजर, ___ मिजाजे तु अजहार तुफ्ली नगस्ता । अर्थात-चालीस साल की उम्र हो गई ; इतनी प्यारी जिन्दगी बीत गई किन्तु मिजाज से अभी बचपन नहीं गया यानी अज्ञान दूर नहीं हुआ । इतनी आयु व्यतीत हो जाने पर भी अभी यह समझ में नहीं आ सका कि धर्म क्या है ? यह जीवन कितनी कठिनाई से मिला है और किस प्रकार इसको सफल बनाया जा सकता है ? इन सब प्रश्नों के उत्तर गंभीरता से तब तक नहीं समझे जा सकते, जब तक कि ज्ञान प्राप्त न किया जाय । और इसीलिए 'शेखसादी' ने चालीस वर्ष की आयु हो जाने पर भी तीव्र लगन के साथ ज्ञान प्राप्त करना प्रारम्भ किया और उसे पाकर ही छोड़ा। सच्चा प्रयत्न या पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता। भाग्य भी पुरुषार्थी के अनुकूल हो जाता है। एक श्लोक में कहा भी है यथाग्निः पवनोद्ध तः सुसूक्ष्मोऽपि महान् भवेत् । तथा कर्मसमायुक्त देवं साधु विवर्धते । जिस प्रकार थोड़ी सी आग वायु का सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थ का सहारा पाकर देव का बल विशेष बढ़ जाता है । इसीलिए किसी भी व्यक्ति को अपनी आयु के अधिक हो जाने पर भी निराश नहीं होना चाहिए और जिस क्षण में भी हृदय में शुद्ध विचार जागृत हों, उसी क्षण से उन्हें जीवन में उतारने का प्रयत्न प्रारम्भ करना चाहिए । अभी-अभी मैंने आपको बताया था कि जीवन भर अधर्माचरण और पाप करने वाला व्यक्ति भी अगर अंत समय में घोर पश्चात्ताप करता है और उसके भाव पूर्णतया विशुद्ध एवं उत्कृष्ट हो जाते हैं तो वह समाधिभाव से मरकर शुभगति प्राप्त कर लेता है, अर्थात् अपने सम्पूर्ण जीवन का लाभ भी आयु के उस अंतिम काल में उठा लेता है। फिर हमारे पास तो अभी भी समय है । और इस थोड़े समय में भी हम क्यों नहीं इसका लाभ उठा सकते हैं। यानी अवश्य उठा सकते हैं। क्योंकि जीवन की सार्थकता आयु के लम्बे होने से नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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