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________________ विषममार्ग को मत अपनाओ ! २४१ ___ सारांश यही है कि एक मार्ग सम होता है और दूसरा विषम । अतः प्रत्येक मंजिल की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति को सममार्ग पर ही चलना चाहिए विषम मार्ग पर नहीं । अन्यथा उसे विषम मार्ग पर चलने वाले गाड़ीवान के समान पश्चात्ताप करने की नौबत आ सकती है। ___ यह एक व्यावहारिक दृष्टान्त है जो गाथा में दिया गया है और आगे कहा गया है कि विषम मार्ग पर चलने वाले गाड़ीवान के समान ही जो व्यक्ति धर्म के सम मार्ग को छोड़कर अधर्म के विषम मार्ग पर चलता उसे अंत समय में शोक करना पड़ता है। . 'स्थानांग सूत्र' में कहा गया है एगा अहम्मपडिमा, जं से आया परिकिलेसति । एक अधर्म ही ऐसी विकृति है, जिससे आत्मा क्लेश पाती है । 'आदिपुराण' भी इसी बात की पुष्टि करता है कि नीचैवृत्तिरधर्मेण धर्मेणोच्चैः स्थितिं भजेत् । तस्मादुच्चैः पदंवाञ्छन् नरो धर्मपरों भवेत् ।। अर्थात्-अधर्म से मनुष्य की अधोगति होती है और धर्म से ऊर्ध्वगति । अतः ऊर्ध्वगति चाहने वाले को धर्म का आचरण करना चाहिए। सच्चा धर्म केवल परलोक में ही जीव के लिए सुखकर होता है और मरने के पश्चात् ही उच्चगति प्रदान करता है, इतनी ही उसकी मर्यादा नहीं है । अपितु इस लोक में भी वह प्रत्यक्ष रूप से फल प्रदान . करने वाला साबित होता है। आप सोचेंगे यह किस प्रकार होगा ? उत्तर में ध्यानपूर्वक समझना चाहिए कि मनुष्य को इस जन्म में ही दो प्रकार से लाभ हासिल होता है। एक प्रकार का लाभ आंतरिक होता है और दूसरा बाह्य । आतरिक लाभ धर्म से आंतरिक लाभ यह होता है कि जब व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, दया, क्षमा, दान, शील, तप तथा भावरूप धर्म को अपना लेता है तो उसके हृदय में शांति स्नेह, समता एवं संतोष के निर्झर प्रवाहित होने लगते हैं जो उसकी आत्मा को प्रतिपल एक अवर्णनीय सुख में डुबोये रहते हैं । साथ ही उसमें आत्म-विश्वास जाग जाता है और उस दृढ़ विश्वास के कारण न तो वह इहलोक में आधि, व्याधि और उपाधिजनित चिन्ताओं से भयभीत होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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