SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ है और न ही परलोक के भय से त्रस्त होता है । उसका मन सदैव हलका और उत्साह से परिपूर्ण रहता है। ___अन्तःकरण का विश्वास और सुख कपोल-कल्पित नहीं है वरन् प्रत्यक्ष में ही अनुभवगम्य है । उदाहरण स्वरूप कामदेव श्रावक के अन्तःकरण ने सुखरूप धर्म को भली भाँति अनुभव कर लिया था और उसमें वे इतने तल्लीन रहते थे कि जिस देवता ने उनकी परीक्षा लेने के लिए पिशाच, हाथी और सर्प का रूप बनाकर उन्हें घोर कष्ट देना चाहा, उस समय भी वे अपनी आत्म-शक्ति और आंतरिक सुख के कारण रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए। उलटे देवता को ही पराजित होकर उनके चरणों में झुकना पड़ा । ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म का विश्वास और धर्म-जनित सुख कोई साधारण चीज नहीं है । वह आत्मा की बड़ी भारी शक्ति है जो उसके आंतरिक फल के रूप में प्राप्त होती है इसे ही धर्म का आंतरिक लाभ कहा जा सकता है। बाह्यलाभ धर्म से बाह्य और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला लाभ भी कम नहीं है । हम सहज ही देख सकते हैं कि जिस व्यक्ति के अन्तःकरण में धर्म का निवास होता है वह पापों से विषधर नाग के समान बचता है। धर्म-परायण - व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी, असत्य अन्याय, क्रूरता एवं अनैतिकता आदि से सदा दूर रहता है। अगर वह व्यापारी है तो उतना ही मुनाफा अपनी वस्तुओं का लेगा जितना उसे लेना चाहिए । झूठ बोलते हुए वह ग्राहकों से दुगुनी और चौगुनी कीमत वसूल नहीं करता । परिणामस्वरूप उसे अपने सत्य-धर्म और ईमानदारी का तुरन्त ही लाभ यह मिलता है कि उसकी साख जम जाती है और लोग उसे सच्चा मानकर सदा उसकी दुकान से ही वस्तु निश्चित होकर ले जाते हैं । इसीप्रकार कोई व्यक्ति अगर नौकरी करता है, किन्तु कभी किसी प्रकार की चोरी नहीं करता, कभी रिश्वत नहीं लेता और अपने कार्य में सावधान रहता है, तो स्वयं उसका मालिक उसके प्रति सदय रहता है, उससे ममत्व रखता है और उसका सम्मान करता है तथा अन्य लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं। सारांश यह है कि धर्म मनुष्य के अंदर रहे हुए सदगुणों को प्रकाशित करता है और सद्गुणी पुरुष की ख्याति एवं प्रसंशा की सुगन्ध बिना फैलाए हुए भी पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक पहुंच जाती है। सत्यवादी हरिश्चन्द्र, शीलवान सुदर्शन, महादानी कर्ण, सती सुभद्रा तथा वन्दनबाला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy