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________________ धर्मरूपी कल्पवृक्ष"" २३७ हो सकता। स्वयं काल भी इस पृथ्वी को दुष्ट प्राणियों और दुखद वस्तुओं से रहित करने में समर्थ नहीं है। फिर साधारण प्राणी की तो बात ही क्या है ? ऐसा विचार कर धर्म-परायण ब्यक्ति स्वयं उनसे किनारा करने का प्रयत्न करते रहते हैं। ___ जिस प्रकार भूमि पर के कांटों और कंकरों से पैरों की रक्षा करने के लिये समग्र पृथ्वी को तो चमड़े से मढ़ा नहीं जा सकता, किन्तु केवल अपने पैरों में जूतियां पहन लेने से पृथ्वी चमड़े से मढ़ी हुई सी लगने लग जाती है और पैरों का बचाव हो जाता है । इसी प्रकार संसार में अनेक दुष्ट, निंदक, ईर्ष्यालु और साधना का उपहास करने वाले निकृष्ट ब्यक्ति होते हैं । उन सबसे लड़ा नहीं जा सकता और सभी को समझाया भी नहीं जा सकता । ऐसा विचार कर सच्चे साधक अपनी आत्मा को ही दृढ़ता के कवच से ढक लेते हैं। वे यही प्रयत्न करते हैं कि बाह्य संसार की अनिष्ट और आत्म-घातक विचार धाराएं उनकी आत्मा तक न पहुंचे तथा जगत की निंदा और उपहास इनके मन को प्रभावित न कर सके । धर्म के सहारे से ही यह संभव होता है और आनन्द तथा कामदेव श्रावक आदि ने इसे सिद्ध भी कर दिया है जैसा कि हम उनकी जीवनी को पढ़ने से जान सकते हैं। हिन्दुस्तान के इतिहास में भी आपने पढ़ा होगा कि बादशाह औरंगजेब ने गुरु गोविंदसिंह के दो मासूम बालकों को जिंदा दीवाल में चुनवा दिया था। इसका कारण यह था कि वे बच्चे मुसलमान बनने के लिए तैयार नही हुए थे। उन्हें लाख लालच और नाना प्रकार के प्रलोभन दिये गए किन्तु अपने धर्म पर दृढ़ रहने वाले वे शेर बच्चे टस से मस नहीं हुए। क्या आप हम लोगों में इतनी आत्म-दृढ़ता है ? मैं तो समझता हूं कि अगर प्राण-नाश की नौबत आ जावे तो अधिकांश हिन्दू ब्यक्ति चाहे जिस धर्म में दीक्षित हो जाने को तैयार हो जाएंगे। दुकानों पर बैठकर दो-दो, चारचार पैसों के लिए भगवान की और धर्म की सौगंध खा जाने वाले व्यक्तियों को धर्म पर मर जाने की हिम्मत पड़ भी कैसे सकती है ? किन्तु मेरे भाइयो ! ऐसा मुरादाबादी लोटा बने रहने से काम नहीं चल सकता और धर्म को इस प्रकार ग्रहण किये रहने से भव-सागर तैरा नहीं जाता । हमें दृढ़ता और आत्मा की सच्चाई से यह प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी कि गहिओ सुग्गइ मग्गो, नाहं मरणस्स बोहेमि । ____ अर्थात् मैंने सद्गति के मार्ग - धर्म को अपना लिया है। अब मैं मृत्यु से नहीं डरता। __आत्मा से किया हआ ऐसा निश्चय ही हमें साधनापथ में आने वाली समस्त विघ्न-बाधाओं से मुकाबला करने की शक्ति प्रदान करेगा तथा भवसागर से पार उतारेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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