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________________ २३६ आनन्द-प्रवचन भाग-४ कभी याद आ जाती है । और लगता है कि छोटी से छोटी सेवा में ही कितनी बाधाएँ मनुष्य के जीवन में आती हैं तो फिर बड़े - बड़े कार्यों में तो बाधाएँ आना और अप्रिय प्रसंगों का उपस्थित होना स्वाभाविक ही है । किन्तु जो बहादुर व्यक्ति अपनी लगन के पक्के होते हैं वे किसी भी बाधा या संकट की परवाह न करके अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं । विघ्न और बाधाओं से जो घबरा जाता है वह कभी भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता और मार्ग में ही हिम्मत खो बैठता है । भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में लिखा है :प्रारभ्यते न खलुविघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विधनविहता विरमन्ति मध्या । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ इस श्लोक में कवि ने मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ बताई हैं—उत्तम, मध्यम एवं निकृष्ट । इन तीनों के विषय में क्रमश: कहा है- निकृष्ट व्यक्ति बाधाओं के डर से काम शुरु ही नहीं करते; मध्यम प्रकृति वाले कार्य का प्रारंभ तो कर देते हैं किन्तु ज्योंही कोई विघ्न उपस्थित हुआ, उसे छोड़ देते हैं । किन्तु इसके विपरीत जो उत्तम पुरुष होते हैं वे बार-बार विघ्नों के आने पर भी काम को जब एक बार आरंभ कर देते हैं तो कदापि उसे नहीं छोड़ते । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि हमें उत्तम पुरुष बनना है तथा धर्म को अपना कर उसे कभी भी छोड़ना नहीं है चाहे दुनिया हमारा उपहास करे, निंदा करे या हमारे मार्ग में अन्य कोई भी बाधा उपस्थित क्यों न करे । आप जानते ही हैं कि जगत और भगत में कभी मेल नहीं रहा है । भक्त मीराबाई को उसकी भक्ति के कारण ही अनेक बार मार डालने की कोशिश की गई और ज़हर भी पिलाया गया । प्रह्लाद को भक्त होने के परिणाम स्वरूप ही स्वयं उसके पिता हिरणकश्यप ने कई बार उसे जान से मारने का प्रयत्न किया । इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं । अभी-अभी मैंने जिसके विषय में बताया है उन आनन्द श्रावक एवं कामदेव श्रावक को भी भगवान की भक्ति करने और धर्म में दृढ़ रहने के कारण देवताओं तक ने उन्हें सताया और कसौटी पर कसा । किन्तु इन सच्चे भक्त डिगे नहीं और और सच्चे साधकों ने मर जाना कबूल किया पर अपने धर्म से न मरणांतक कष्ट पहुंचाने वाले नाना कष्टों के डर से अपने उद्देश्य का ही त्याग किया । मुक्ति - प्राप्ति के क्योंकि वे जानते थे – इस संसार में दुष्टों का अभाव तो कभी भी नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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