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________________ धर्मरूपी कल्पवृक्ष"" २३५ बालक भाग नहीं सकता था और हाथी उसे सूड में उठाने ही जा रहा था कि एक बहादुर व्यक्ति अपनी जान की परवाह न करते हुए हाथी के सामने आया और उस बच्चे को खींच कर ले गया । बच्चे का बाप दूर खड़ा बचाओ, बचाओ, की चीख-पुकार मचा रहा था पर उसकी हिम्मत अपने बालक को भी हाथी के सामने से लाने की नहीं हुई। किन्तु सौभाग्यवश अपनी जान पर खेल जाने वाले उस व्यक्ति ने बालक को बचाया और उसके पिता के समीप लाकर छोड़ दिया। बन्धुओ, बच्चे के बाप और उसके रक्षक में ऐसी दुश्मनी थी कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए फिरते थे। किन्तु जब उस छोटे शिशु पर प्राण-संकट आ पड़ा तो उसके पिता के दुश्मन ने अपनी दुश्मनी को भूलकर बालक को बचा लिया। और फिर आप ही सोचिये कि क्या उनकी दुश्मनी फिर भी बनी रह सकती थी ? नहीं, बच्चे का पिता अपने दुश्मन किन्तु बालक के रक्षक के पैरों पर गिर पड़ा और उसी क्षण उनकी दुश्मनी तो सदा के लिये समाप्त हो ही गई, वे भविष्य के लिये सच्चे मित्र और एक-दूसरे के हितचिन्तक बन गये। ____ तो यह सेवा या सहायता का ही फल था कि एक-दूसरे की जान के ग्राहक दो व्यक्तियों में वैर-भाव समाप्त हुआ और वे आपस में दोस्त बन गए। सेवाब्रत का पालन करना बड़ा कठिन होता है । अनेक बार तो उसके लिये नाना प्रकार के अपमानजनक शब्द भी सुनने पड़ते हैं। मान लीजिये आप व्याख्यान सुनने के लिये घर से रवाना होते हैं और मार्ग में किसी परिचित के मिलने पर उससे भी अपने साथ चलने का आग्रह करते हैं तो कई ऐसा कहनेवाले भी मिल जाते हैं - "तुम अपने लिये स्वर्ग का दरवाजा खोल लो, हम तो जब तुम पालकी में बैठोगे तो उसका एक डंडा पकड़ लेंगे।" इतना ही नहीं, वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि "सब साधु-महात्मा ढोंगी हैं ।" अरे भाई ! हम ढोंगी ही सही पर उस बोलने वाले का तो हमने कोई नुकसान नहीं किया ? फिर वह क्यों अपनी जबान गन्दी करते हैं ? ____एक बार जबकि मैं बारह वर्ष का ही था और अपने गुरु म० के पास से प्रतिक्रमण सीखकर आया ही था, एक दिन मैंने एक बुजुर्ग से कहा"दादा ! आज अष्टमी है प्रतिक्रमण सुनने स्थानक में चलो।" उत्तर में तुरन्त ही उन्होंने कहा—'बड़ो धर्म रो धचेड़ो आयो है।" लोग इस प्रकार व्यक्तियों को तिरस्कृत भी करते हैं। हमने तो उस दिन अपना प्रतिक्रमण किया ही पर उनकी बात उस दिन से लेकर अब तक भी कभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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