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________________ २३४ आनन्द-प्रवचन भाग-४ प्रेरणा, सशिक्षा और सहायता के आधार पर अनेक प्राणी अपने जीवन को सफलतापूर्वक बिताते हुए उस पुण्य-कर्म रूपी अनाज के दाने इकठे करते थे जो उनके परलोक में काम आते थे। आनन्द श्रावक को 'अपराजेय' भी कहा जाता था। वह इसलिये कि धर्म तीन काल और तीनों लोकों में किसी भी प्रकार असत्य साबित नहीं होता और किसी भी तर्क से उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। आनन्द ऐसे ही सच्चे धर्म को धारण करनेवाले थे अतः वे किसी भी प्रकार की मिथ्या धारणाओं से पराजित नहीं हो सकते थे। उनके घर में बारह करोड़ सोनैय्या होते हुए भी वह उस धन से सर्वथा उदासीन और विरक्त रहते थे । अपने ऐश्वर्य में उनकी न तो तनिक भी ममता थी और न ही उसके लिये गर्व का भाव था। हालांकि इतिहास में मम्मन सेठ का भी वर्णन आता है किन्तु उसे कोई आदर से याद नहीं करता और न ही लोगों के समक्ष वह आदर्श के रूप में उपस्थित किया जाता है , इसका कारण यही है कि वह करोड़पति होते हुए भी अत्यन्त कृपण था तथा एक कौड़ी भी किसी की सेवा या सहायता में खर्च नहीं करता था। किन्तु इसके विपरीत आनन्द श्रावक को आप भी लोग बड़े सम्मान, श्रद्धा एवं आदर्श पुरुष या श्रावक के रूप में स्मरण करते हैं। वह इसीलिये कि उसका जीवन औरों की सेवा तथा सहायता में ही व्यतीत हआ था । एक भजन की लाइन मुझे याद आ रही है, जिसमें कहा गया हैउसी का जीवन है धन्य जग में, जो सेवा व्रत में लगा हुआ है । वस्तुतः उसी व्यक्ति का जीवन इस जगत में धन्यवाद का पात्र हैं जो औरों की सेवा में व्यतीत होता है । सेवा-धर्म सबसे कठिन धर्म है जिसे प्रत्येक व्यक्ति कभी नहीं अपना पाता। यद्यपि सेवा के लिये धन अनिवार्य नहीं है, शरीर, मन और वाणी से भी व्यक्ति अनेक व्यक्तियों को दुख से उबार सकता है। सेवा हृदय और आत्मा को पवित्र बनाती है, मन की संकुचित एवं अनुदार भावों से रक्षा करती है तथा शत्रु को भी मित्र बनाकर छोड़ती है। ___कहा जाता है कि एक बार किसी राजा का हाथी भड़क गया और वह शहर के मार्गों पर बिना महावत और अंकुश के घुमने लगा। कई व्यक्तियों को उसने चोट पहुंचाई और बाजार में दुकानों पर तोड-फोड़ करके काफी नुकसान किया। इसी प्रकार घूमते-घूमते उसके सामने एक छोटा सा बालक आ गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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