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धर्मरूपी कल्पवृक्ष
२३३ आधार बने हुए थे। अनेकानेक प्राणी उनकी छत्रछाया के नीचे पलते थे और अपनी जरूरतों को पूरा करते थे। ___ दूसरा विशेषण उनके लिये था 'चक्ष भूत' । प्राणी के सम्पूर्ण शरीर में आंख का बड़ा भारी महत्व होता है। सभी जानते हैं और कहते हैं-आँखों के बिन सारा जग ही सूना है। कविवर रहीम ने कहा है
मन सो कहां रहीम प्रभु, दृग हो कहा दिवान ।
दंगन देखि जेहि आदरे, मन तेहि हाथ बिकान ।। - आँखें मन के लिये दीवान के समान होती हैं । और जो व्यक्ति आँखों के द्वारा किसी के भव्य व्यक्तित्व को एवं आँखों के द्वारा झलकने वाले उसके स्नेह, करुणा, वात्सल्य आदि सुन्दर सद्गुणों को पहचान कर उनका आदर करता है मन उसके हाथ स्वयं ही बिक जाता है अर्थात् प्रभावित हो जाता है, दूसरे शब्दों में मन के आँखें नहीं होतीं वह तो शरीर में रहे हुए चक्ष ओं की कसौटी पर कसी जाने वाली वस्तुओं के प्रति आकर्षित होता है या नफरत करता है, यानी आँखों की सूचना के आधार पर ही वह अपना कार्य करता है।
तो मैं आपको आँखों के महत्व को बता रहा था और कह रहा था कि आँखें ही जहां अपने मन के भावों का दर्पण होती हैं, वहाँ दूसरे मन को परखने की भी शक्ति रखती हैं। किसी दार्शनिक ने तो यहाँ तक कहा है कि -"आँख जहाँ ब्रह्मांड एवं शरीर के आदान-प्रदान का माध्यम है, वहीं वह आत्मा-परमात्मा के अनन्त प्रणय का सेतु भी है।"
आनन्द श्रावक को भी 'चक्ष भूत' इसलिये कहा गया है कि वे अज्ञानी, पथम्रष्ट प्राणियों का मार्ग-दर्शन करने में पूर्ण समर्थ थे।
उनकी तीसरी विशेषता यह थी कि वे संसारी प्राणियों के लिये 'मेढ़ीभूत' थे ऐसा शास्त्रों में आता हैं । किसान खलिहान में फसल इकठी करता है और फिर उसमें से अनाज निकालने के लिये उसे जमीन पर बिछाता है। तत्पश्चात उसपर बैलों को एक कतार में बांधकर उस पर खूब धुमाता है, ताकि उनके पैरों से अनाज झड़ जाए और घास अलग हो जाए। पर ध्यान देने की बात है कि बैल बिना किसी आधार के उस पर नहीं घूम पाते और इसलिये अनाज के बीचोंबीच लकड़ी की एक मेढ़ी बनाकर गाड़ देते हैं और उससे बँधी हुई रस्सी के सहारे से बैल घूमते रहते हैं ।
आनन्द श्रावक भी मनुष्यों के लिये मेढ़ी के समान थे यानी उनकी सद्
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