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________________ २३२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ हम स्वयं भी भगवान महावीर का नाम लेने के साथ ही उनके मातापिता श्री सिद्धार्थ राजा और त्रिशला रानी को भी श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं । वह क्यों ? इसीलिये कि उन्होंने धर्म के सच्चे स्वरूप को समझा और उसे अंगीकार किया था । धर्मं साधारण चीज नहीं है, उसके समान उत्कृष्ट चीज इस संसार में कोई है ही नहीं । जो इसे सच्चे मायने में समझ लेते हैं तथा जीवन में रमा लेते हैं वे अपने साथ ही अनेकानेक अन्य प्राणियों का भी उद्धार कर देते हैं । भगवान महावीर अपनी साधना करते थे किन्तु चण्डकौशिक सर्प को अपने प्रभाव से आठवें स्वर्ग में पहुंचा दिया | मनुष्यों की हत्या करके उनकी अगुलियों की माला पहनने वाले अंगुलिमाल डाकू और प्रतिदिन छः प्राणियों की हत्या करने वाले अर्जुन माली को भी उन्होंने आत्म-कल्याण के मार्ग पर लगाया । कहने का अर्थ यही है कि सन्त- मुनिगण एवं अवतारी पुरुष अपना जन्म लेकर अपना कल्याण तो करते ही हैं, साथ ही संसार के अन्य प्राणियों के सहायक बनते हैं । औरों का दुःख भी उन्हें अपना दुःख महसूस होता है क्योंकि अपनी आत्मा के समान ही वे अन्य समस्त प्राणियों की आत्मा को मानते हैं । अपने गाँव जिले या प्रांत के प्राणियों का ही नहीं, वरन सम्पूर्ण विश्व के प्राणियों का उद्धार हो, ऐसा वे चाहते हैं । "शिवमस्तु सर्व जगतः, परहित निरता भवन्तु भूतगणाः ॥ दूसरों के कष्टों का निवारण करने में जो लोग लगे हैं, ऐसे लोग संसार में होवें । अपना स्वार्थ तो प्रत्येक प्राणी सिद्ध करता ही है चाहे वह अमीर हो या गरीब हो । पर इसमें क्या बड़ी बात है ? व्यक्ति की महानता उसमें है कि वह दीन, दरिद्र, दुखी, असहाय एवं अभावग्रस्त प्राणी की सहायता करे, उनकी सेवा करे और उनसे प्रेम रखे । ऐसा करने वाले व्यक्तियों का जीवन ही सफल कहलाता है । " उपासक दशांगसूत्र” के मूल पाठ में आनन्द श्रावक का वर्णन आता है । वे साधु नही थे, फिर भी कितने महान थे यह हम शास्त्रों के पठन से जान सकते हैं । उनको कई उपमाएं विशेषण के तौर पर दी गई थीं । 1 Jain Education International सर्वप्रथम उन्हें 'आधारभूत' कहा गया है। जिस प्रकार छत के लिये खंभे आधारभूत होते हैं उसी प्रकार वे अनेक प्राणियों के लिये सभी प्रकार का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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