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________________ धर्मरूपी कल्पवृक्ष २३१ श्री उत्तराध्ययन सूत्र की यह गाथा है ; जिसमें बताया है—आर्य धर्म का आचरण करके महापुरुष दिव्यगति (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार समस्त भौतिक एवं आध्यात्मिक शुभ फलों को प्रदान करने वाले धर्म को कल्पवृक्ष की उपमा दी जाय तो कौनसी बड़ी बात है ? इस कल्पवृक्ष के द्वारा मनुष्य प्रत्येक इच्छित पदार्थ की उपलब्धि कर सकता है। धर्म के बल पर ही वह स्वयं इस संसार-सागर को पार करता है तथा अन्य प्राणियों को भी अपने साथ तैराकर ले जाता है। मराठी भाषा में भी एक पद्य हैगर सम घर सम जुनिया, जे हरी नामा मृतांत तर तरले । तरले ते चि न केवल, त्यांचे भवसागरी पितर तरले ॥ __ महाराष्ट्र में मोरोपंत नामक बड़े सुप्रसिद्ध कवि हुए हैं। आप जानते ही हैं कि जिस प्रकार आभूषण सन्नारी के सौन्दर्य को बढ़ा देते हैं उसी प्रकार कवि भी अपनी भाषा को रस एवं उपमा आदि अलंकारों से सुन्दर बना देते हैं। इस पद्य में भी मोरोपंत कवि ने अलंकारमय भाषा में कहा है-जिसने अपने घर को जहर के समान समझकर त्याग दिया हैं तथा हरि नाम यानी परमात्मा के नाम रूपी अमृत का पान किया है वह स्वयं तो भवसागर तैरा ही है, साथ ही उसके पूर्वज भी तर गये हैं। मैं इस विषय को मराठी भाषा में थोड़ा सा कहता हूं : "ज्या आत्माने घराला विषा प्रमाणं समजुन, ज्या प्रमाणे हे प्राणांतक आहे त्याच प्रमाणे हे संसार सुद्धा आत्म साधनेत घातक आहे असे समजुन जे परमेश्वरा चे नाम स्मरण रूपी अमृताने तरबतर झाले, भिजून गेले, गुंगले, रंगले । सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तप, जप मधे जे लागले हे जे दहा प्रकारांचे धर्म आहेत, धर्माचा काही एक स्वरूप नाहीं । विशेष काय सांगावे, त्यांचा मुष्ठे त्यांचे पितर सुद्धा या भवसागर तरले ।" . अर्थात -- "जिस आत्मा ने घर को विष के समान समझा है और जिस प्रकार विष प्राणघातक है, उसी प्रकार संसार भी आत्म-साधना का घातक है ऐसा मानकर भगवान के नाम स्मरण रूपी अमृत में जो भीग गये हैं, रंग गये हैं तथा सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तप, जप आदि दस प्रकार के धर्मों को अपना चुके हैं वे स्वयं तो संसार-समुद्र से पार हुए ही हैं, साथ ही उनके पितर भी तर गये हैं यानी सदा के लिये अमर हो गये हैं ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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