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________________ १८ | धर्मरूपी कल्पवृक्ष.... धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! जिस प्रकार व्यक्ति एक जहाज के द्वारा असीम जलराशि को पार कर जाता है, उसी प्रकार धर्म रूपी जहाज के द्वारा यह संसाररूपी अथाह सागर पार किया जा सकता है। एकमात्र धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जो अनन्त काल से भिन्न-भिन्न योनियों में भटकती हुई आत्मा को इनसे छुटकारा दिला सकती है । कर्म ही मानव के मानस को परिष्कृत करता है, कर्तव्य अकर्तव्य का भान कराता है तथा साँसारिक प्रलोभनों से बचाता हुआ मोक्ष मार्ग पर अग्रसर करता है । धर्म की महिमा वर्णनातीत है, क्योंकि यह एक कल्पवृक्ष है जिससे भौतिक एवं आध्यात्मिक समग्र सुख हासिल होते हैं । एक संस्कृत के श्लोक में भी बताया गया है : प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां, रम्यं रूपं सरस कविता चतुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धि, किं नु ब्रूमः फलपरिणति धर्म कल्पद्र मस्य ॥ अर्थात् विशाल राज्य, सुभग पत्नी, पुत्रों के पुत्र एवं पौत्र, सुन्दर रूप, सरस कविता, निपुणता, मधुर स्वर, नीरोगता, गुणानुराग, सज्जनता तथा सद्बुद्धि आदि ये सभी कर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल हैं जिनका एक जिल्ह्वा से कहाँ तक वर्णन किया जाय ? Jain Education International धर्म के विषय में इतना ही नहीं आगे भी कहा गया है। 'दिव्वं च ग गच्छन्ति चरिता धम्ममारियं ।' For Personal & Private Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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