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________________ विषम-मार्ग मत अपनायो ! धर्मप्रेमी बन्धुओं, माताओ एवं बहनों ! इस पृथ्वी पर गलियों, सड़कों एवं महापथों का जाल सा बिछा हुआ है । प्रतिदिन सुबह से लेकर शाम तक और रात तक भी असंख्यों व्यक्ति अपने-अपने उद्देश्यों को लेकर किसी न किसी मार्ग पर चलते हैं। लेकिन वे अपनी मंजिल पर तभी पहुँच पाते हैं, जब कि मार्ग भ्रष्ट न हों तथा मार्ग में ही बैठ न जायँ । न तो मार्ग में रुकजाने वाला व्यक्ति अपनी मंजिल को पाता है और नहीं मार्ग भ्रष्ट होने वाला। अगर व्यक्ति को पूर्व की ओर जाना है पर वह चल पड़े पश्चिम की ओर तो कैसे अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा और इसी प्रकार सीधी सड़क छोड़कर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चल पड़ने वाला किस प्रकार अपने निर्दिष्ट स्थान को पहुँच सकेगा। उलटे वह काँटे, कंकर झाड़ी-झंकाड़ और पत्थर-पहाड़ों में भटककर अपने पैरों को क्षतविक्षत कर लेगा और वस्त्रों को भी सुरक्षित नहीं रख पाएगा। परिणाम यह होगा कि मंजिल तो उसे मिलेगी नहीं और मार्ग में ही कष्ट और दुख से पश्चात्ताप करना पड़ेगा। हमारा धर्म भी मोक्ष तक पहुँचा देनेवाला एक राजमार्ग है। अनेक यात्री इस पर चल पड़ते हैं, किन्तु क्वचित ही कोई महा-मानव अपनी मंजिल तक पहुँच पाता है। इसका कारण यह है कि इस पथ पर चलने वाले व्यक्तियों में से अधिकांश तो मंजिल की प्राप्ति में अनिश्चित समय जानकर अधैर्यवश बीच में से ही लौट आते हैं, अधिकांश विघ्न-बाधाओं से घबराकर भाग खड़े होते हैं और अधिकांश तो दत्तचित्त होकर इस मार्ग पर चल ही नहीं पाते, क्योंकि इसके आस-पास फैले हुए सांसारिक प्रलोभन उन्हें आकर्षित कर लेते हैं और वे बीच मार्ग में ही रुक जाते हैं। फिर भी जो बच जाते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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