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आनन्द-प्रवचन भाग-४
"क्या बकते हो तुम ? कहते हुए उन्होंने बाहर झाँका और अपने बाप को पहचान लेने पर भी अपने मित्रों के समक्ष शर्मिन्दा होने से बचने के लिए हँसते हए कहा- "मेरे पिता तो बचपन से ही गुजर चुके हैं । यह कोई पागल आदमी दिखाई देता है अतः फाटक से बाहर निकाल दो ! खबरदार ! यह सनकी बूढ़ा अन्दर न आने पाए।"
तो बंधुओ, स्वार्थी और नीच व्यक्ति थोड़ा साधन या उच्च पद पाते ही इसीप्रकार अपने आत्मीयों से ही क्या, भाई या बाप सभी से आँखें फिरा लेते हैं । माता-पिता जिस आशा से अपनी संतान का स्वयं नाना प्रकार के कष्ट सह करके भी जीवन बनाते हैं, उस आशा पर वे कुठाराघात कर देते हैं । और ऐसे पुरुष मनुष्य के रूप में रहकर भी मनुष्य नहीं कहला सकते । इसीलिए श्लोक में पुरुष का तीसरा लक्षण-'भोगी परिजनैः सह' बताया गया है। (४) शास्त्रे बोद्धा
पुरुष का चौथा लक्षण शास्त्रों का जानकार होना कहा गया है। व्यक्ति चाहे जितनी पुस्तकें पढ़ ले, और चाहे जितनी ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ हासिल कर ले, अगर उसे शास्त्रों का बोध नहीं है तो समझना चाहिए कि उसने कुछ भी ज्ञान हासिल नहीं किया है। संस्कृत भाषा में कहा गया है
श्लोको वरं परमतत्व-पथप्रकाशी,
न ग्रन्थकोटिपठनं जनरंजनाय ।" अर्थात्-मोक्ष मार्ग का पथ प्रदर्शक एक ही श्लोक श्रेष्ठ है किन्तु संसार को प्रसन्न करने के लिए करोड़ों ग्रन्थों का पठन करना भी व्यर्थ है।
बंधूओ, आप समझ गये होंगे कि ऐसा क्यों कहा गया है ? कारण यही है कि आज जो विद्या स्कूलों और कालेजों में पढ़ाई जाती है वह केवल भौतिक सफलता की प्राप्ति में सहायक होती है। अर्थात् -- उसके द्वारा मनुष्य बड़ीबड़ी नौकरियाँ प्राप्त कर सकता है तथा अधिक से अधिक धन कमाकर अपने जीवन के लिये भोगोपभोग की सामग्री जुटा सकता है। . किन्तु इससे आत्मा को क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं, चाहे जितना ऐश्वर्य व्यक्ति इकट्ठा करले, जीवन के अन्त में वह तो यहीं छूट जाता है और उनके लिए किये हुए अन्यायों, धोखेबाजियों और अनीतियों से अजित पापों का भार आत्मा के साथ बंध जाता है जो भविष्य में भी जन्म-जन्मान्तर तक कष्ट पहुंचाता है।
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