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________________ उत्तम पुरुष के लक्षण २२५ है जो सुख और दुख में समानभाव से अपने स्वजनों का साथ दे । यह नहीं कि सुख के दिनों में तो वह अपने परिजनों को अपना माने और दुःख के समय उनसे दूर भाग जाय । हम प्रायः देखते हैं कि अपने सुख के दिनों में भाई-भाई को भूल जाता है और बेटा बाप को पहचानने से भी इन्कार कर देता है । एक छोटा सा उदाहरण हैमेरे पिता गुजर चुके किसी गरीब व्यक्ति के एक पुत्र था । उसने पुत्र का भविष्य सुधारने के लिए अपना पेट काट-काट कर उसे पढ़ाया और स्वयं दरिद्रता से भयानक संघर्ष करते हुए भी पुत्र को भरसक सुख-सुविधा के साधन जुटाये। इस प्रकार करते हुए अंत में पुत्र पढ़ लिख कर विद्वान् हो गया और उसकी उच्च सरकारी पद पर नियुक्ति हो गई। बेचारे दरिद्र व्यक्ति ने यह सब इसलिये किया कि पुत्र पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बन जायेगा तो उसका बुढ़ापा सुख से निकलेगा। घर में और कोई है नहीं, पत्नी भी बहत दिन हुए मर चुकी थी। किन्तु पुत्र ने बड़ा आदमी बनते ही पिता की ओर से आंखें फेर ली तथा उसे पत्र देना या अपने गाँव जाना भी छोड़ दिया। गरीब बापने किसी तरह कुछ अर्सा दुःख भोगते हुए बिताया पर जब उसके हाथ पैर अत्यन्त शिथिल हो गये और और अपने पेट भरने के लिये वह थोड़ा भी श्रम करने लायक नहीं रहा तो गाँव के हितचिन्तक निवासियों ने उसे सलाह दी-"बाबा ! तुम्हीं अपने पुत्र के पास चले जाओ आखिर तो वह तुम्हारा खन है अतः पसीजेगा और तुम्हारे बुढ़ापे में काम आयेगा ही।" । वृद्ध व्यक्ति ने कोई उपाय न देखकर यही करना तय किया और बड़ी आशा से अपने जीर्ण-शीर्ण कपड़ों को एक पोटली में बाँधकर अपने लड़के के यहाँ जाने के लिये रवाना हो गया। बहुत खोज-बीन करके वृद्ध पिता ने अपने पुत्र के बंगले को पाया और वह अन्दर प्रवेश करने लगा। फाटक पर चौकीदार था उसने जब एक देहाती वृद्ध को अंदर आते देखा तो डॉटकर पूछा-'कौन हो तुम ?' __ वृद्ध ने अपने लड़के का नाम बताते हुए कहा-मैं उसका अभागा बाप हूं, गांव से आया हूँ।" यह सुनकर चौकीदार दौड़ा हुआ बंगले में आया और अपने मालिक जो कि अपने समक्ष और भी बड़े-बड़े पदाधिकारियों के साथ बैठे हुए शाम की चाय पी रहे थे, बोला-"हुजूर, गांव से एक देहाती वृद्ध आए हैं और अपने को आपके पिता बता रहे हैं।" १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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