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________________ २२० आनन्द-प्रवचन भाग - ४ आप श्रेष्ठ हैं मैं कहाँ आपकी तुलना में ठहर सकता हूँ । आप ठहरे नरश्रेष्ठ ब्राह्मण और मैं चमार । किन्तु कृपा करके मेरी यह सुपारी आप लेते जाइये और गंगा मैया को दे दीजियेगा ।" " अच्छी बात है लाओ !" कहकर ब्राह्मण ने वह सुपारी अनिच्छा से जेब में डाली और वहाँ से रवाना होने के लिए मुड़ा । इतने में ही रैदास ने पुनः कहा “भगवन् ! मेरी यह सुपारी आप गंगा माता के हाथ में ही दीजियेगा, व्यर्थ मत उछालियेगा अगर गंगा मैया इसे अपने हाथों से न लें तो इस रास्ते से आप निकलेंगे ही, मुझे पुनः लौटा दीजियेगा ।" ब्राह्मण रैदास की यह बात सुनकर आपे से बाहर हो गया और तेज स्वर से बोला - "लो और सुनो, हम सैकड़ों बार गंगाजी में स्नान कर गये पर हमारी कोई भेंट गंगा माता ने अपने हाथों नहीं ली, पर वे तुम्हारी इस सुपारी को जरूर अपने हाथों में ले लेंगी जिसने आज तक कभी गंगा का दर्शन नहीं किया और जाति के भी चमार हो । पर मेरा क्या नुकसान है देखता हूँ जाकर कि तुम्हारी भेंट गंगा जी कैसे हाथों में लेती हैं ।" रैदास ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और अपनी स्निग्ध मुद्रा से ब्राह्मण को दूर से ही नमस्कार किया और पुनः जूतियाँ गॉठने बैठ गया ? ब्राह्मण थोड़े समय में ही गंगा के किनारे पहुंच गया जो कि वहाँ से अधिक दूर नहीं थी । निर्दिष्ट स्थल पर पहुंचकर उसने गंगा की पूजा-अर्चना की भक्तिभाव से स्नान किया और अपने वस्त्र पहन लिये । कुछ देर बाद जब वह वहाँ से चलने को हुआ तो उसका हाथ किसी कार्यवश जेब में पहुंच गया । जेब में सुपारी थी जिसका स्पर्श होते ही उसे रैदास का ध्यान आया और वह बड़े तिरस्कार के भाव से सुपारी हाथ में लेकर बोला – “गंगा मैया ! तुम्हारे बड़े भारी भक्त मोची ने यह सुपारी तुम्हारे हाथों में देने के लिए भेजी है और कहा है कि गंगा माता के हाथ में ही इसे देना । " ब्राह्मण बड़ी नफरत और क्रोध से ये शब्द बोल ही रहा था कि उसे गंगा की पवित्र और निर्मल धारा में एक अपूर्व सुन्दर हाथ उठता हुआ दिखाई दिया । मारे आश्चर्य के ब्राह्मण की आँखें कपाल पर चढ़ गई और उसने थरथर कांपते हुए पुन: गंगा में उतर कर वह सुपारी गंगा के हाथ में रख दी । तत्पश्चात् वह ज्योंही लौटने को हुआ वही हाथ एक बार पानी के अन्दर कर वापिस बाहर आया और उसने एक देवी कंगन ब्राह्मण के हाथों पर रख दिया तथा साथ एक स्पष्ट आवाज गूंजी - " यह कंगन मेरे भक्त रैदास को देना । " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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