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________________ उत्तम पुरुष के लक्षण कवि गिरिधर ने कहा है कोय | गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय ॥ कहा गया है— गुण के हजारों ग्राहक होते हैं, किन्तु उनके अभावों में कोई किसी को नहीं पूछता । जिस प्रकार कौआ और कोयल रंग में समान होते हैं पर कोयल के मधुर स्वर को सब सुनते हैं । और उसकी सराहना करते हैं । कौए की काँव-काँव किसी को प्रिय नहीं लगती । तात्पर्य यही है कि मनुष्य अपने गुणों से महान् बनता है । चाहे वह किसी भी जाति व कुल में उत्पन्न क्यों न हुआ हो । २१ कठौती में गंगा - मीराबाई के गुरु, भक्त रैदास जाति के चमार थे और जूतियाँ गांठकर अपना जीवन-यापन करते थे । एक बार एक ब्राह्मण यात्री गंगा स्नान के लिए निकला, पर उसके गाँव से गंगा नदी बहुत दूर थी अतः चलते-चलते उसके पैर की जूतियां फट गई । मार्ग में चलते हुए उसे रैदास चमार दिखाई दिया अतः उसने अपनी जूतियाँ रैदास को गाँठने के लिये दीं । रैदास ने थोड़े समय में ही ब्राह्मण की जूतियाँ ठीक करके दे दीं और यह जानकर कि ब्राह्मण-देवता गंगा स्नान के लिए जा रहे हैं । उन्हें एक सुपारी देते हुए कहा - " द्विज श्रेष्ठ; आप गंगामाई के दर्शन करने तो जा ही रहे हैं, मेरी यह सुपारी भी गंगा मैया को भेंट कर दीजियेगा ।" ब्राह्मण चकित होकर बोला - "भाई, गंगाजी तुम्हारे यहाँ से तो थोड़ी ही दूर हैं, फिर तुम स्वयं क्यों नहीं जाकर अपनी भेंट उन्हें चढ़ाते हो ?" रैदास ने उत्तर दिया--" देख तो रहे हैं आप, मुझे समय ही नहीं मिलता । इतनी सारी जूतियाँ सदा ही सामने पड़ी रहती हैं ठीक करने के लिए आस-पास और कोई चमार तो है ही नहीं और मैं भी काम न करूँ तो बेचारे यात्रियों को बड़ी तकलीफ होगी ।" ब्राह्मण बोला – “कैसे आदमी हो जी तुम ? दिन-रात पेट के धन्धे में ही लगे रहते हो जरा सा समय निकाल कर गंगा मैया के दर्शन भी नहीं कर सकते ? मुझे देखो मेरा गाँव मीलों दूर है पर मैं उतनी दूर से भी कई बार गंगा स्नान के लिए आया हूँ । और आज भी जा रहा हूं । असल में भगवान् के प्रति व्यक्ति की भक्ति होनी चाहिए वह तुममें आयेगी ही कहाँ से ? जाति के चमार जो ठहरे । ब्राह्मण के तिरस्कारपूर्ण वचनों को सुनकर भी रैदास के मुख पर क्रोध का तनिक भी भाव नहीं आया । वह अत्यन्त नम्रतापूर्वक बोला – “देव ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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